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द्वितीय खण्ड/पंचम पुस्तक
भावार्थ - सम्यग्दृष्टि के विषयों में अनादर है इसमें यह यक्ति दी है कि सम्यग्दष्टि जानता है कि जैसी शरीर में रोग की बाधा ऐसी ही यह विषयों की अभिलाषा की बाधा; दोनों एक बराबर हैं। अतः वह विषयों को रोगवत् ही जानता है। प्रमाण - यह वेदना भय से रहितपने का विषय ज्यों का त्यों कलश १५६ का है। वह इस प्रकार है :
वेदना से निर्भयपना एषैकैत हि वेदना यदचल ज्ञान स्वयं वेद्यते. लिभेंटोदितवेद्यावेदकवलादेक सदानाकुलैः नैवान्यागतवेदनैत हि भवेतभी: कुतो ज्ञानिनो,
निश्शकः सततं स्वयं स सहज ज्ञाजं सदा विंदति || १५६ ।। कलशार्थ - अभेद स्वरूप वर्तते हुए वेद्य-वेदक के बल से ( वेद्य और वेदक अभेद ही होते हैं, ऐसी वस्तुस्थिति के गानो गक उतना ही सं निराकुल पुरुषों के द्वारा (ज्ञानियों के द्वारा) सदा वेदन में आता है, वह एक ही वेदना ( ज्ञान वेदन) ज्ञानियों के है।(आत्मा वेदक है और ज्ञान वेद्य है)। ज्ञानी के दूसरी कोई आगत ( पुद्गल से उत्पन्न) वेदना होती ही नहीं इसलिये उसे वेदना का भय कहाँ से हो सकता है ? यह तो स्वयं निरन्तर निःशङ्क वर्तता हुआ सहज ज्ञान का सदा अनुभव करता है।
भावार्थ - सुख-दुःख को भोगना वेदना है। ज्ञानी के अपने एक ज्ञानमात्र स्वरूप का ही उपभोग है। वह पुद्गल से होने वाली वेदना को वेदना ही नहीं समझता, इसलिये ज्ञानी के वेदना भय नहीं है। वह तो सदा निर्भय वर्तता हुआ ज्ञान का अनुभव करता है।
अत्राण (अरक्षा) भय सूत्र १२९९ से १३०३ तक ५ अनाणं क्षणिकैकान्ते पक्षे चित्तक्षणादिवत् ।
नाशात्प्रागंशिनाशस्य त्रातुमक्षमतात्मनः ॥ १२९९॥ सूत्रार्थ - (बौद्धों के ) क्षणिक एकान्त पक्ष में प्रति समय नाश होने वाले चिन-क्षण आदि की तरह, (पर्याय के) नाश से पहले आत्मा रूप अंशों के नाश की रक्षा करने के लिये असमर्थता अत्राण ( अरक्षा) भय कहलाता है।
भीति: प्रातांशनाशात्स्यादशिनाशनमोऽन्वयात् ।
मिथ्यामात्रैकहेतुत्वान्जून मिथ्यादृशोऽस्ति सा ॥ १३०० ।। सत्रार्थ- अंश (पर्याय) के नाश से पहले अन्वय से अंशी (द्रव्य) के नाश का भ्रम अत्राणभय है। वह निश्चय से केवल एक मिथ्या हेतुक होने से मिथ्यादृष्टि के ही होता है।
शरण पर्ययस्यारतैगतस्यापि सन्तियात् ।
तमनिच्छन्निवाज्ञः स धरतोऽस्त्यवाणसाध्वसात ।।१३०१॥ सूत्रार्थ - पर्याय के नाश होने पर भी अन्वय रूप रहने से (बना रहने से ) सत् शरण है। उस शराभूत सत् को नहीं स्वीकार करने वाले के समान वह अज्ञानी अत्राण (अरक्षा) भय से त्रस्त (भयभीत ) होता है।
सदृष्टिस्तु चिदंशैः स्तैः क्षणं जष्टे चिदात्मनि ।
पश्यन्नष्टमिवात्मानं निर्भयोऽत्राणभीतितः ॥ १३०२ 11 सूत्रार्थ - सम्यग्दृष्टि तो अपने चेतनात्मक अंशों से प्रतिसमय चिदात्मा के नाश होने पर भी अधांत् इस अपेक्षा से (पर्यायार्थिक नय से ) आत्मा का नाश मानता हुआ भी अत्राणभय से निडर है ( क्योंकि द्रव्यार्थिक नय से तो ।
द्रव्यतः क्षेत्रतश्चापि कालादपि च भावतः ।
नानाणमशतोऽप्यत्र कुतस्तद्धि महात्मनः ॥१३०३ ॥ सूत्रार्थ - द्रव्य से, क्षेत्र से , काल से और भाव से भी वस्तु थोड़ी भी अरक्षित नहीं है। इसलिये महात्मा( सम्यग्दृष्टि) के वह अत्राणभय कैसे हो सकता है?