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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
छठा अवान्तर अधिकार
निःकांक्षित अंग सूत्र १३१५ से १३४४ तक ३० कांक्षा भोगाभिलाषः स्यात्कृतेऽमुष्य क्रियासु वा ।
कर्मणि तत्फले सात्म्यमन्यदृष्टिप्रशंसनम् ॥ १३१५ ॥ सूत्रार्थ - (व्रतादिक) क्रियाओं के करने पर ( उनसे) पर भव के लिये भोगों की अभिलाष करना अथवा कर्म में और कर्म के फल में अपनेपने का भाव रखना तथा अन्यदृष्टि की प्रशंसा करना, कांक्षा है।
भावार्थ - अब सम्यग्दृष्टि के निःकांक्षित अंगको बतलाने के लिये पहले कांक्षा का स्वरूप निर्देश करते हैं क्योंकि उस कांक्षा से रहितपना ही नि:कांक्षा है (१)मिध्यादृष्टि जो व्रतादिक क्रियाएं करता है उनके फलस्वरूप स्वर्ग सुख की इच्छा उसके हृदय में रहती है वह इच्छा ही कांक्षा है।सम्यग्दृष्टि को सामान्य का आश्रय है। उसके आश्रय से जितना शुद्ध भाव प्रगट है वह तो मोक्ष का कारण है। साथ में जो शुभ भाव है उसको वह केवल अशुभ से बचने के लिये करता है फिर भी उसमें उसकी उपादेय बुद्धि नहीं है। वह उसका ज्ञाता-दृष्टा है। उसकी इच्छा उस शुभ भाव को तोड़ कर शुद्ध भाव को पूर्ण करने की है किन्तु अभी चारित्र की निर्बलता है तोड़ नहीं सकता है। वह यह भी जानता है कि इस शुभ भाव का फल स्वर्ग का बंध है और उसका फल विषय सुख है पर उस विषय सुख को वह श्रीपंचास्तिकाय सूत्र १७१, १७२ की टीका अनुसार राग के अंगारों में जलना समझता है। चन्दन के वृक्ष पर लगी हुई आग है क्योंकि उस विषय सुख की अविनाभावी तष्णा की वृद्धि रूप दःख और रागादिभावों की सेना उसका फल है जो बंध की कारण और संसार बढ़ाने वाली है। अतः वह उस सुख को नहीं चाहता। शरीर और वचन की शभक्रियाओं को तो वह जानता है कि इनसे पुण्य-पाप या मोक्ष का कुछ सम्बन्ध ही नहीं। यह तो परद्रव्य की स्वतन्त्र किया है जो अपनी योग्यता से होती है। यह सम्यग्दृष्टि का पहला नि:कांक्षाभाव है। (२) कर्म के संयोग से जो शरीर,स्त्री, पुत्र, धनादि या देव, शास्त्र, गुरु आदि मामी का मंगोग है यह कर्म का फल है। उसको मिथ्यादृष्टि अपना मानता है यह कर्म और कर्म के फल में अपनेपने का भाव है। यह अपनेपने का भाव ही कांक्षा है। यह कांक्षाभाव मिथ्यादृष्टि के नियम से होता है। सम्यग्दृष्टि को स्वपर का भेदविज्ञान है। उसके बल पर वह केवल सामान्य तत्त्व को उपादेय मानता है। शेष सब कर्मकृत मानता है क्योंकि उसका उसके साथ कार्यकारण सम्बन्ध है। अतः उसे स्वप्न में भी किसी कर्मकृत वस्तु में अपनेपने का भाव नहीं होता यह उसका निःकांक्षा भाव है।(३) मिथ्यादृष्टि को वस्तु स्वरूप का निर्णय न होने से अन्यमती की किसी क्रिया का या अन्य कोई बात की प्रशंसा उसके मुख से निकल पड़ती है। जैसे यह कैसा सुन्दर वक्ता है, उन लोगों में कितनी उदारता है, अपने गुरु की कितनी सेवा करते हैं, कितना दान करते हैं, यहाँ कोई पूछता ही नहीं है। कितना बढ़िया मन्दिर बनाया है, शास्त्र में क्या बढ़िया बैंक पेपर लगाया है। इत्यादि सब कांक्षा भाव है। मिथ्यादृष्टि को सत्-असत् का निर्णय न होने से ऐसा भाव आ ही जाता है। आज विनय मिथ्यात्व का जोर है। सारे जगत् की बुद्धि सब धर्मों के समन्वय की होती जा रही है। यह सब गाढ़ मिथ्याच और अनन्त संसार उत्पत्ति का भाव है। जहर व अमृत तीन काल में एक नहीं हो सकते। धर्म और अधर्म का मेल किसी भी अङ्ग से तीन काल में नहीं हो सकता। सत्यमार्ग केवल एक सर्वज्ञ प्रणीत दिगम्बर धर्म है। बिना अन्तरंग और बाह्य दिगम्बरत्व के मुक्ति त्रिकाल नहीं। ऐसी सच्ची बात लिखना तो दरकिनार कहने का भी आज किसी को साहस नहीं: किन्त है यही बात यह कांक्षा भाव है। मिथ्यादृष्टि को होता ही है। सम्यग्दृष्टि; आत्मा को, पर को, शुद्ध भाव रूप धर्म को, शुभाशुभ जहर को, कर्मजनित संयोग को अनुभव पूर्वक जानता है। उसकी सर्वज्ञभाषित आगमदृष्टि है। कितना भी असाता का उदय आये किन्तु भूलकर भी उसकी मार्ग से श्रद्धा नहीं डिगती यह नि:काक्षित अंग है। श्रीमद्राजचन्द्रजी ने कहा है। 'तीन काल में एक है परमार्थ को पंथ'। श्रीसमयसारजी में सम्यग्दष्टि के भाव दिखाते हुए कहा है
सम्यग्दृष्टय एव साहसमिदं कर्तुं क्षमंते परं । यदवोऽपि पतत्यमी भयचलत्रैलोक्यमुक्तास्तनि । समिव निसर्गनिर्भयतया शंकां विहाय स्वयं ।
जानतः स्तमबध्यबोधवपुषंबोधाच्च्यते न हि ।। १५४।। कलशार्थ - जिसके भय से चलायमान होते हुए (खलबलाते हुए) तीनों लोक अपने मार्ग को छोड़ देते हैं, ऐसा वज्रपात होने पर भी,ये सम्यग्दृष्टि जीव, स्वभावत: निर्भय होने से, समस्त शंका को छोड़कर, स्वयं अपने को(आत्मा