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द्वितीय खण्ड/पंचम पुस्तक
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को) जिसका " ज्ञानरूपी शरीर अवध्य है"। ऐसा जानते हुए, ज्ञान से च्युत नहीं होते। ऐसा परम साहस करने के लिये मात्र सम्यग्दृष्टि ही समर्थ हैं ।
भावार्थ सम्यग्दृष्टि जीव निःशंकित गुण युक्त होते हैं, इसलिये चाहे जैसे शुभाशुभ कर्मोदय के समय भी वे ज्ञानरूप ही परिणामित होते हैं। जिसके भय से तीनों लोक के जीव कांप उठते हैं- चलायमान हो उठते हैं और अपना मार्ग छोड़ देते हैं ऐसा वज्रपात होने पर भी सम्यग्दृष्टि जीव अपने स्वरूप को ज्ञानशरीरी मानता हुआ ज्ञान से चलायमान नहीं होता। उसे ऐसी शंका नहीं होती कि इस वज्रपात से मेरा नाश हो जायेगा, यदि पर्याय का विनाश हो तो ठीक ही है, क्योंकि उसका तो विनाशीक स्वभाव ही है।
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असल में भूल कहाँ होती है। जगत् राज और धर्म का समन्वय करता है। भाई, राज तो परवस्तु को बढ़ाने को कहते हैं और धर्म परवस्तु के आश्रय के त्याग को कहते हैं। यह तो परस्पर आग पानीवत् विरोधी है पर अज्ञानियों को वस्तु 'स्वरूप से अनभिज्ञता के कारण ऐसे ही विकल्प आया करते हैं। इससे और आगे बढ़े हुए लोग समाजव्यवस्था और धर्म को एक करते हैं किन्तु यह भी सोलह आने की भूल है। सामाजिक व्यवस्था शरीर के नियम के आधार पर है और धर्म को आत्मा का आधार । इसमें जमीन-आसमान का अन्तर है। समाज व्यवस्था तो सबकी भिन्न-भिन्न है तो क्या दिगम्बर समाज का जीव ही सम्यग्दृष्टि हो सकता है? नहीं। श्रीरत्नकरण्ड में लिखा है कि सम्यग्दृष्टि का धारी चाण्डाल भी देव है। सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा तो नारकी और तिर्यञ्च भी होते हैं। धर्म तो आत्मा का शुद्धभाव है जो सामान्य के आश्रय है। कहाँ तक कहें, सार यही है कि जब तक जीव को आत्मदर्शन नहीं होते, स्वात्मानुभूति नहीं होती तब तक अनेक लोक मूढ़ताओं को धर्म कल्पना करता है। धर्म तो केवल स्वात्मानुभूति है। शेष सब अधर्म है अतः सम्यग्दृष्टि को परमत की प्रशंसारूप कांक्षा भाव कभी नहीं होता। अब क्योंकि मुख्तया भोगों की अभिलाषा को कांक्षा कहते हैं अतः ग्रन्थकार उसकी परीक्षा का चिन्ह बताते हैं जिससे तुरन्त पता चल जाता है कि इस आत्मा में अभी कांक्षा भाव हैं या नहीं ?
हृषीकारुचितेषूच्चैरुद्वेगो
विषयेषु यः ।
सस्याद्भोगाभिलाषस्य लिङ्गं स्वेष्टार्थजनात् ॥ १३१६ ॥
सूत्रार्थं इन्द्रियों के लिये अप्रिय विषयों में जो अत्यन्त उद्वेग होता है वह भोगाभिलाष का चिन्ह है क्योंकि वह अपने इष्ट पदार्थ में अनुराग करने से होता है।
भावार्थ- कोई यह कहे कि हमें तो कांक्षा भाव (भोगाभिलाष भाव ) नहीं है तो उसकी परीक्षा बतलाते हैं कि अपने इष्टविषयों के प्रतिकूल विषय में या अपने इष्ट विषय में बाधा डालने वाले पर जो रोष आता है वह इस बात का सूचक है कि अभी इस जीव की इष्ट विषय में रुचि है अन्यथा वह रोष भाव नहीं हो सकता था। अब इसमें युक्ति देते हैं। ताथा न रतिः पक्षे विपक्षेऽप्यरति बिना ।
जारतिर्वा स्वपक्षेऽपि तद्विपक्षे रतिं बिना ॥ १३१७ ॥
सूत्रार्थ - वह इस प्रकार कि पक्ष में रति भी विपक्ष में अरति के बिना नहीं होती है। अथवा स्वपक्ष में अरति भी उसके विपक्ष में रति के बिना नहीं होती है अर्थात् ऐसा स्वाभाविक नियम है कि एक के प्रति द्वेष उसके विरोधी के प्रति राग का सूचक है और एक के प्रति राग उसके विरोधी के प्रति द्वेष का सूचक है। जैसे
शीतद्वेषी यथा कश्चित् उष्णस्पर्शं समीहते । नेच्छेदनुष्णसस्पर्शमुष्णस्यर्शाभिलाषुकः
।। १३१८ ।।
सूत्रार्थ जैसे कोई शीत से द्वेष करने वाला उष्णस्पर्श को चाहता है क्योंकि उष्णस्पर्श को चाहने वाला अनुष्ण स्पर्श (ठण्ड ) को नहीं चाहता है।
यस्यास्ति कांक्षितो भावो नूनं मिथ्यादृगस्ति सः ।
यस्यनारित स सदृष्टिर्युक्तिस्वानुभवागमात् ॥ १३१९ ॥
सूत्रार्थ - जिसके कांक्षा भाव है वह निश्चय से मिथ्यादृष्टि है। जिसके वह (कांक्षित भाव ) नहीं है वह सम्यग्दृष्टि है। यह युक्ति, स्वानुभव और आगम से सिद्ध है वह इस प्रकार -