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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
परलोक तेरा नहीं है, ऐसा ज्ञानी विचार करता है, जानता है, इसलिये ज्ञानी को इस लोक का तथा परलोक का भय कहाँ से हो? वह तो स्वयं निरंतर नि:शंक वर्तता हुआ सहज ज्ञान का(अपने ज्ञान स्वभाव का)सदा अनुभव करता है।
भावार्थ- 'इस भव में जीवन पर्यन्त अनुकूल सामग्री रहेगी या नहीं? ऐसी चिन्ता रहना इह लोक का भय है। 'पर भव में मेरा क्या होगा'? ऐसी चिन्ता का रहना परलोक का भय है। ज्ञानी जानता है कि- यह चैतन्य ही मेरा एक, नित्य लोक है, जोकि सदाकाल प्रगट है। इसके अतिरिक्त दूसरा कोई लोक मेरा नहीं है। यह मेरा चैतन्य स्वरूप लोक किसी के बिगाड़े नहीं बिगड़ता। ऐसा जानने वाले ज्ञानी के इहलोक का अथवा परलोक का भय कहाँ से हो? कभी नहीं हो सकता, वह तो अपने दोस्वाभाविक दानाप ही अनुभव करता है!
वेदना भय सूत्र १२९२ से १२९८ तक ७ वेदनाSSगन्तका बाधा मलानां कोपतस्तनौ ।
भीतिः प्रागेत कम्प: स्यान्मोहाद्वा परिदेवनम् ॥ १२९२ ॥ सूत्रार्थ - शरीर में ( दूषित-वात-वित्त-कफ) मलों के प्रकोप होने से आने वाली बाधा वेदना है। वेदना के आने से पहले ही कांपना अथवा वेदना को आने पर शरीर के मोह से रोना-पीटना वेदना भय है।
उल्लाघोऽहं भविष्यामि मा भून्मे वेदना क्वचित् ।
मणैव वेदनाभीतिरिचन्तन वा महुर्मुह ॥ १२९३॥ सूत्रार्थ - मैं निरोगी ( स्वस्थ ) हो जाऊं, मेरे कभी भी वेदना नहीं होने, इस प्रकार की मूर्छा ही वेदना भय है अथवा बार-बार रोग का चिन्तवन करना वेदना भय है।
अस्ति नूनं कुदृष्टेः सा दृष्टिदोषैकहेतुतः ।
नीरोगस्यात्मनोऽज्ञानान स्यात्सा ज्ञानिनः क्वचित् ॥ १२९४ ॥ सूत्रार्थ - निश्चय से वह वेदना मिथ्यादृष्टि के होती है क्योंकि उसमें केवल एक दृष्टि दोष ( मिथ्या श्रद्धा) ही कारण है। उसके नीरोगी (रोग रहित स्वभाव वाले) आत्मा का अज्ञान है। वह वेदना भय ज्ञानी के कभी नहीं होता।
पुद्गलादिभिन्नचिद्धाम्नो न मे व्याधिः कुतो भयम् ।।
व्याधिः सर्वा शरीरस्य नामूर्तस्येति चिन्तनम् ॥ १२९५।। सत्रार्थ - पुदगल से भिन्न चैतन्य स्वरूप मेरे व्याधि नहीं फिर किस कारण से भय हो सकता है। सम्पूर्ण व्याधि शरीर के होती है, अमूर्त आत्मा के नहीं। इस प्रकार सम्यग्दृष्टि का विचार है।
यथा प्रज्वलितो तन्हिः कुटीर दहति स्फुटम् ।
न रहति तदाकारमाकाशमिति दर्शनात् 11 १२९६ ॥ सूत्रार्थ - जैसे प्रचलित अग्नि झोंपड़ी को जलाती है, उस ( झोंपड़ी) के आकार रूप आकाश को नहीं जलाती है ऐसा देखा जाता है। इसी प्रकार व्याधि शरीर को जलाती है। उसके आकार रूप आत्मा को नहीं।
स्पर्शनादीन्द्रियार्थेषु प्रत्युत्पनेषु भाविषु ।
नादरो यस्य सोऽस्यर्थान्जिीको वेदनाभयान || १२९७ ।। सूत्रार्थ - वर्तमान और भावि स्पर्शन-आदिक इन्द्रियों के विषयों में जिसका आदर नहीं है वह वास्तव में वेदनाभय से निर्भीक है।
भावार्थ - शरीर में वेदना तो कभी-कभी होती है। जीव को सबसे बड़ी वेदना तो विषय अभिलाषा है और वह सम्यग्दृष्टि के नहीं है। अत: वह वेदना भय से मुक्त है।
व्याधिरस्थानेषु तेषूच्चै सिद्धोऽनाटरो मलाक् ।
वाधाहेतोः स्वतस्तेषामामयरयाविशेषतः ॥ १२९८॥ सूत्रार्थ - सम्यग्दृष्टि के व्याधि के स्थानभूत उन इन्द्रिय विषयों में अत्यन्त अनादर असिद्ध नहीं है क्योंकि स्वभाव से बाधा के कारण उन विषयों के, रोग से, कोई विशेषता नहीं है!