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द्वितीय खण्ड/पंचम पुस्तक
आत्मा का स्वरूप है; (इसलिये ज्ञान आत्मा की परम गुप्ति है) । इसलिये आत्मा की किंचित् मात्र भी अगुप्तता न होने से ज्ञानी को अगुप्ति का भय कहाँ से हो सकता है ? वह तो स्वयं निरंतर निःशंक वर्तता हुआ सहज ज्ञान का सदा अनुभव करता है।
भावार्थ - 'गुप्ति' अर्थात् जिसमें कोई चोर इत्यादि प्रवेश न कर सके ऐसा किला, भौंरा (तलघर ) इत्यादि उसमें प्राणी निर्भयता से निवास कर सकता है। ऐसा गुप्त प्रदेश न हो और खुला स्थान हो तो उसमें रहने वाले प्राणी को अगुप्तता के कारण भय रहता है। ज्ञानी जानता है कि - वस्तु के निज स्वरूप में कोई दूसरा प्रवेश नहीं कर सकता इसलिये वस्तु का स्वरूप ही वस्तु की परम गुप्ति अर्थात् अभेद्य किला है। पुरुष का अर्थात् आत्मा का स्वरूप ज्ञान है। उस ज्ञान स्वरूप में रहा हुआ आत्मा गुप्त है। क्योंकि ज्ञानस्वरूप में दूसरा कोई प्रवेश नहीं कर सकता। ऐसा जानने वाले ज्ञानी को अगुप्तता का भय कहाँ से हो सकता है ? वह तो नि:शंक वर्तता हुआ अपने स्वाभाविक ज्ञान स्वरूप का निरन्तर अनुभव करता है।
मृत्यु (मरण) भय सूत्र १३०७ से १३१० तक ४ मृत्युः प्राणात्ययः प्राणा: कायवागिन्द्रयं मनः ।
नि:श्वासोच्छ वासमायुश्च दशैते वाक्यविस्तरात् ॥ १३०७॥ सूत्रार्थ - मृत्यु प्राणों के नाश को कहते हैं। प्राण, काय, वचन, इन्द्रिय, मन उच्छ्वासनिःश्वास आयु के दश( प्राण) शब्द का विस्तार है। (अर्थात् प्राणों के दस भेद है)।
तभीतिर्जीवितं भूयान्मा भून्मे मरणं क्वचित् ।
कदा लेभे न वा दैवात् इत्याधिः स्वे तनुव्यये ॥१३०८॥ सूत्रार्थ - पेरा जीवन बना रहे, मेरा मरण कभी न होवे, अथवा दैव योग से कभी भी मैं ( मृत्यु को) प्राप्त न होऊँ इस प्रकार अपने-अपने शरीर के नाश में मानसिक चिन्ता मृत्यु भय है।
नूनं तभी: कुदृष्टीनां नित्यं तत्त्वमजिच्छताम् ।
अन्तस्तत्वैकवृत्तीनां तभीति निनां कुतः ॥ १३०९ ॥ सूत्रार्थ-निश्चय से तत्त्व को नहीं चाहने वाले मिध्याद्रष्टियों के ही मृत्यु भय नित्य होता है। मात्र एक अन्तस्तत्त्व में वृत्ति रखने वाले ज्ञानियों के वह मरण भय कैसे हो सकता है ? नहीं हो सकता।
जीवस्य चेतना प्राणा: नून सात्मोपजीविनी ।
नार्थान्मुत्युरतरत्तदभीः कुतः स्यादिति पश्यतः ।। १३१०।। सुत्रार्थ - जीव के चेतना प्राण है और वह चेतना निश्चय से आत्मा का जीवन है(आत्परूप ही है)। वास्तव में मृत्यु ( मरण) होता ही नहीं है। इसलिये ऐसा श्रद्धान रखने वाले के वह मृत्यु भय कैसे हो सकता है ?
भावार्थ - सामान्य स्वभाव मात्र चेतनरूप है। वही निश्चय प्राण है। उसका नाश नहीं है। अतः सम्यग्दृष्टि के मरण भय नहीं है। जो पौद्गलिक दस प्राणों से ही आत्मा का जीवन मानता है उसके तो नियम से यह भय होगा ही क्योंकि पुद्गल प्राण तो संयोगी है। उनका वियोग अवश्यंभावी है। अतः मिथ्यादृष्टि को मरणभय बना ही रहता है। प्रमाण - इस मरण भय का विषय कलश नं.१५९ का है। वह इस प्रकार है:
मरण से निर्भयपना प्राणोच्छेदमुटाहरंति मरणं प्राणाः किलास्यात्मनो । ज्ञानं तत्स्वयमेव शाश्वततया नोच्छिद्यते जातुचित् । तस्यातो मरणं न किंचन भवेत्तझीः कुतो ज्ञानिनो ।
निरीकः सततं स्वयं स सहज ज्ञानं सटा विंदति 11 १५९ ॥ कलशार्थ - प्राणों के नाश को(लोग)मरण कहते हैं। निश्चय से आत्मा के प्राण तो ज्ञान है।वह (ज्ञान)स्वयमेव शाश्वत् होने से उसका कदापि नाश नहीं होता; इसलिये आत्मा का मरण किंचित् मात्र भी नहीं होता। अतः (ऐसा जानने वाले) ज्ञानी को मरण का भय कहाँ से हो सकता है? वह तो स्वयं निरंतर निःशंक वर्तता हुआ सहज ज्ञान का सदा अनुभव करता है।