________________
३४८
ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
यह बताते हैं कि आत्मानुभूति तो सब जीवों को है। मिथ्यावृष्टि को भी है उसे आत्मा का अनुभव कर्मचेतना कर्मफलचेतना रूप है। बिना आत्मानुभव तो कोई जीव जगत में है ही नहीं। यदि वह आत्मानुभूति ज्ञान-चेतना रूप है आ
आतमानी अनुभूमि है। सामान्य मान रूप है तब सम्यक्त्व का अनात्मभूत लक्षण कही जा सकती है और उसी की सम्यक्त्व के साथ व्याप्ति है अन्यथा सम्यक्त्व का लक्षण नहीं कही ज्झ सकती है। इसका स्पष्टीकरण चौथी पुस्तक में हो चुका है।
किञ्चास्ति विषमव्याप्तिः सम्यक्त्वानुभवद्वयोः ।
नोपयोगे समव्याप्तिररित लब्धिविधौ तसा ॥ ११७२॥ सूत्रार्थ - इतना विशेष है कि सम्यक्त्व और उपयोग रूप अनुभव दोनों में विषम व्याप्ति है। वह इस प्रकार कि - उपयोग में (अर्थात् उपयोग रूप स्वात्मानुभूति और सम्यक्त्व की) समव्याप्ति नहीं है किन्तु वह समव्याप्ति लब्धि रूप स्वात्मानुभूति में तो है।
भावार्थ - शुद्धात्माभूति दो प्रकार की होती है एक लब्धिरूप और दूसरी उपयोग रूप। बहुत से जीव समझते हैं कि सम्यक्त्व दो प्रकार का होता है एक लब्धिरूप दूसरा उपयोगरूप। यह उनकी धारणा गलत है। सम्यक्य न लब्धि रूप होता है न उपयोग रूप। सम्यक्व में यह भेद ही नहीं है। वह आत्मा की निर्विकल्प शुद्धि का नाम है। लब्धि उपयोग तो ज्ञान की पर्याय में होते हैं। ज्ञानावरण के विशिष्ट क्षयोपशम को जो कि क्षयोपशम आत्मशुद्धि में कारण है। उसको लब्धि रूप स्वात्मानुभूति कहते हैं। इसकी तो सम्यक्त्व के साथ दोनों ओर से व्याप्ति है। इसी को समव्यप्ति कहते हैं जैसे जहाँ-जहाँ सम्यक्त्व है वहाँ-वहाँ यह लब्धिरूप स्वात्मानुभूति है तथा जहाँ-जहाँ लब्धि रूप स्वात्मानुभूति है वहाँवहाँ सम्यक्व है। इसी के आधार पर शुद्ध आत्मानुभूति सम्यक्त्व का लक्षण कहा जाता है। यह स्वात्मानुभूति सम्यग्दृष्टि को खाते-पीते, सोते-जागते हर समय रहती है। इसका विरह नहीं है। एक स्वात्मानुभूति उपयोग रूप होती है। जिस समय सम्यग्दृष्टि सब पर कार्यों को छोड़कर आत्मध्यान में लीन होता है। बुद्धिपूर्वक सब विकल्यों का अभाव होता है। मात्र उपयोग पूर्णतया स्व में रमता है इसको उपयोगरूप स्वात्मानुभूति उपयोगरूप स्वात्मानुभूति कहते हैं। किहींकिन्हीं का विचार है कि यह उपयोगरूप स्वात्मानुभूति सातवें या आठवें गुणस्थान में प्रारंभ होती है पर वह धारणा बिल्कुल गलत है। यह भी चौथे से ही होती है। चौथे को बहुत देर-देर में होती है। पाँचवें वाले को उससे जल्दी-जल्दी होती है और छठे वाले को अन्तर्मुहूर्त बाद नियम से होती है। सातवें से सिद्ध तक तो हैं ही स्वात्मानुभूति रूपा यह जो उपयोगरूप स्वात्मानुभूति है इसकी सम्यक्त्व के साथ समव्याप्ति नहीं है किन्तु विषमव्याप्ति है। इसका अर्थ यह है कि जहाँ-जहाँ यह उपयोगात्मक अनुभूति है वहाँ-वहाँ तो सम्यक्त्व जरूर है और जहाँ-जहाँ सम्यक्त्व है वहाँ-वहाँ यह होती भी है और नहीं भी होती है। जिस समय सम्यक्त्वी ध्यानावस्था में होता है उस समय होती है शेष समय में नहीं होती। अब स्वयं आचार्य अमृतचन्द्रजी इसी बात को समझाते हैं।
स्पष्टीकरण सूत्र ११७३ से ११७७ तक ५ ताथा स्तानुभूतौ वा तत्काले वा तदात्मनि ।
अस्त्यवश्यं हि सम्यक्त्वं परमात्सा न विनापि तत् ॥ ११७३ ।। सूत्रार्थ - खुलासा इस प्रकार है कि स्वात्मानुभूति के होने पर अथवा स्वात्मानुभूति के काल में भी उस आत्मा में सम्यक्त्व अवश्य ही है। क्योंकि उस ( सम्यक्त्व रूप कारण) के बिना वट्स (स्वात्मानुभूति रूप कार्य) भी नहीं है।
यदि वा सति सम्यक्त्वे स स्याद्वा नोपयोगवान् ।
शुद्धस्यानुभवरतत्र लन्धिरूपोऽस्ति वस्तुतः ।।११७५ ॥ सूत्रार्थ - अथवा इस प्रकार से भी विषमव्याप्ति कही जाती है कि सम्यक्त्व के होने पर आत्मा स्वात्मानुभूति के उपयोग सहित होवे अथवा न भी होवे किन्तु इतना अवश्य है कि शुद्ध ( सामान्य आत्मा) का अनुभव वहाँ लब्धिरूप वस्तुत: है।
हेतुस्त्तत्रापि सम्यक्वोत्पत्तिकालेऽरस्यवश्यतः ।
तज्ज्ञानावरणस्योच्चैरस्त्यवरथान्तर स्वतः ॥ ११७५॥ सत्रार्थ- उसमें भी कारण है ( अर्थात् सम्यक्त्व के होने पर नियमपर्वकलब्धिरूप स्वात्मानुभति के रहने में कारण