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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्याये।
__ शङ्का-मनुष्यों के देह-इन्द्रिय और विषयों के रहने पर ही ज्ञान और सुख होता है और उनके नहीं रहने पर सुख ज्ञान नहीं होता। फिर वह अकिंचित्कर (व्यर्थ ) कैसे हैं ?
समाधान सूत्र ११२६ से ११३८ तक १३ लैतं यतोऽन्वयापेक्षे थ्यंजके हेतुदर्शनात् ।
कार्याभिव्यंजक: कोपि साधनं न विजान्वयम ॥ ११२६ ॥ अर्थ-ऐसा नहीं है क्योंकि अन्वय की अपेक्षा(सत्ता) रहने पर ही व्यंजक (निमित्त में हेतपन
ने पर ही व्यंजक में (निमित्त में ) हेतुपना देखा जाता है। कोई भी कार्य का अभिव्यंजक (निमित्त) अन्वय (उपादान) बिना साधन नहीं है।
भावार्थ-शिष्य की शमा का ऐसा भाव था कि महाराज हम तो प्रत्यक्ष देखते हैं कि विषय के बिना इन्द्रिय सुख आत्मा नहीं भोग सकता। इससे प्रत्यक्ष पता चलता है कि विषय सुख को उत्पन्न करते हैं तो उसका समाधान आचार्य निमिन उपादान की संधि समझाते हैं कि भाई,कार्य तो वह पदार्थ स्वयं ( उपादान)करता है। निमित्त उस कार्य को नहीं करता उलटा वह तो यह बताता है कि यह कार्य मैंने नहीं किया है किन्तु उपादान ने किया है। जैसे हवन सामग्री को आग में डालिये तो उसकी सुगन्ध प्रकट हो जाती है। आग उस सुगन्ध को उत्पन्न नहीं करती किन्तु वह तो ढिंढोरा पीट कर जगत् के जीवों को यह प्रकट कर रही है कि रे जीवो ! देखो यह सुगन्ध मेरी नहीं किन्तु हवन सामग्री की है। अतः भाई निमित्त उपादान के कार्य का उत्पादक नहीं है किन्तु अभिव्यंजक है, प्रकाशक है, प्रकट करने वाला है। उसी प्रकार भला बेचारे जड़ पदार्थ चेतन में क्या उत्पन्न करेंगे? कुछ नहीं । वास्तव में बात यह है कि जगत् को वस्तु के द्रव्य गुण पर्याय का ज्ञान नहीं है। श्री प्रवचनसार नं. २३४, २३५ में कहा है कि यह अज्ञानी जगत् बहिरंग
योगी चापशुरो देशका हिसको गति से कार्य होता दीखता है किंतु ज्ञानी आगम चक्षु से देखते हैं उन्हें उपादान स्वयं अपने स्वकालकी योग्यता से कार्य करता दीखता है। एक जगह श्रीसमयसार में आचार्य महाराज ने कहा है कि हमें तो प्रत्यक्ष मिट्टी घड़ा बनाते दीख रही है कुम्हार नहीं। यदि कुम्हार बनाता तो वह कुम्हार के गुण रूप बनता मिट्ठी के नहीं। श्री प्रवचनसार की गाथा नं. २३५ की टीका और पूर्वापर वाचने से पूर्ण संतोष हो जायेगा।
दृष्टान्तोऽगुरुगन्धस्य व्यञ्जकः पावको भवेत् ।
ल रयाद्विनाऽगुरुद्रव्यं गन्धस्तस्पावकरय सः ॥ ११२७॥ अर्थ-दृष्टान्त अगुरु (हवन सामग्री ) की गन्ध की व्यञ्जक ( प्रकट करने वाली) आग होती है। वह गन्ध उस अगुरु द्रव्य के बिना आग के नहीं होती है।
तथा देहेन्दियं चार्गः सन्त्यभिव्यंजकाः क्वचित ।
ज्ञानस्य तथा सौरव्यरय न स्वयं चित्सुस्वात्मकाः ॥ ११२८॥ अर्थ-वैसे ही देह-इन्द्रिय और विषयकहीं पर(संसार अवस्था में ) ज्ञान के और सुख के अभिव्यञ्जक (प्रकाशक) होते हैं परन्तु वे स्वयं ज्ञान और सुख स्वरूप नहीं हो जाते हैं।
नाप्युपादानशून्येऽपि स्यादभिव्यंजकात्सुरवम् ।
ज्ञानं वा तत्र सर्वत्र हेतुशून्यानुषङ्गतः । ११२९॥ अर्थ-उपादान के अभाव में केवल अभिव्यंजक (निमित्त ) से ही सुख और ज्ञान नहीं हो सकता क्योंकि वैसा मानने । पर सर्वत्र (उपादान) कारण के अभाव में ही कार्य की उत्पत्ति का प्रसंग आवेगा।
ततःसिद्धं गुणो ज्ञान सौरव्य जीवस्य वा पुनः ।
संसारे ता प्रमुस्तौ वा गुणानामनतिकमात् ॥ ११३०॥ अर्थ-इसलिये संसार में अथवा सिद्ध में ज्ञान और सुख गुण जीव के सिद्ध होते हैं क्योंकि वे गुणपने को उलंघन नहीं करते जिसमें जो गुण नहीं होता उसमें वह कार्य ही नहीं हुआ करता। कार्य तो पर्याय को कहते हैं। बिना गुण के पर्याय कैसी?
किं च सावरर्ण ज्ञान सुखं संसारपर्यये ।। तन्निरावरण मुक्तौ ज्ञान ता सुरखमात्मनः ।। ११३१ ।।