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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
गुण में भी सत्तारूप है और पर्याय में भी सत्तारूप है। वस्तु है और ज्ञान, दर्शन, चारित्र गर्य आदि गुणों की तरह इन गुणों से भिन्न उसकी आत्म प्रदेशों में पथक् पर्याय हर समय परिणमन रूप है और समय-समय नई-नई उत्पन्न होती रहती है और जीव उसकी शुद्धता का सुख भोगता रहता है। अब आत्मभूत उस सम्यक्त्व पर्याय का कुछ स्वरूप बतलाते हैं।
सत्रोरथस्तमोठा तमोरेवशमभिः ।
दिशः पसलिमासेदः सर्वतो विमलाशयाः || ११५०॥ सूत्रार्थ - उसके विषय में यह उल्लेख है कि जैसे सूर्य की किरणों के द्वारा अन्धकार के नाश होने पर दिशायें । सब प्रकार से निर्मल होकर प्रसन्नता को प्राप्त होती हैं उसी प्रकार -
दृमोहोपशमे सम्यग्दृष्टेसल्लेख एव सः ।
शुद्धवं सर्वदेशेषु त्रिधा बन्धापहारि यत् ॥ ११५१ ॥ सूत्रार्थ - दर्शनमोह के उपशम होने पर सम्यग्दृष्टि का भी वही उल्लेख है। सब प्रदेशों में शुद्धता हो जाती है जो । शुद्धता तीन प्रकार के बन्ध (द्रव्य-भाव-उभय) का नाश करनेवाली है।
भावार्थ-उस पर्याय का सीधा स्वरूप तो शब्दों में समझाना बड़ा कठिन है, पर आचार्य दृष्टान्त द्वारा उसका कुछ प्रतिभास कराते हैं। जिस प्रकार वर्षा काल हो, अमावश्या की अन्धेरी रात हो, चारों ओर से बादल छाये हुए हों, घुप्प अंधेरा हो, ऐसी दशा में दिशायें मैली होने से किसी पथिक को मार्ग नहीं मिलता किन्तु प्रात: होते ही यदि सूर्य निकल आये और उसकी किरणें फैलें तो दिशायें एकदम निर्मल हो जाती हैं। उसी प्रकार अनादि काल से जीव अज्ञानी है, दर्शनमोह का बादल छाया हुआ है। भाव मिथ्यात्व रूप अमावस्या की काली रात्रि है। उस मैल के कारण जीव को अपने पराये का मार्ग नहीं मिलता है। जब दर्शनमोह का बादल फटता है। जीव पुरुषार्थ से भाव मिथ्यात्व को दूर करता है। श्रद्धा गुण रूपी सूर्य की सम्यग्दर्शन रूप किरणें फैलती हैं तो आत्मा के प्रदेशों से अनादिकालीन मैल दूर हो जाती हैं। और उन आत्म प्रदेशों में तत्त्वार्थ श्रद्धान निर्मल अर्थात् शुद्ध हो जाता है। उस शुद्धता का नाम ही सम्यग्दर्शन पर्याय है और कहते हैं कि आत्मा केवल शुद्ध हो जाता है यही लाभ है या और भी कुछ लाभ है तो कहते हैं कि मिथ्यात्त्व भाव से जो आत्मा में द्रव्य बंध, भाव बंध, उभय बंध हुआ करता था और जिसके फलस्वरूप यह संसार बनता था वह तीनों प्रकार का बन्ध दूर होता है। मिथ्यात्वादि का निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध टूट जाता है और उस समय पंचपरावर्तन की कला पहाड़वत् फट जाती है। यह उसी समय उस एक समय की सम्यक्त्व पर्याय का फल है। अब एक और दृष्टान्त द्वारा सम्यक्त्व के स्वरूप का अनुभव कराते हैं।
यथा वा मद्यधतूरपाकरस्यास्तंगरय वै ।
उल्लेवो मूछितो जन्तुरुल्लाघः स्याटमूच्छितः || ११५२ ।। सूत्रार्थ - अथवा सम्यग्दृष्टि का यह उल्लेख है कि जैसे उतरे हुए शराब या धतूरे के नशे का मूच्छित प्राणी अमूछित होकर प्रसन्न होता है।
दृइमोहस्योटयान्मूर्छा वैचित्यं वा तथा क्षमः ।
प्रशान्ते त्तस्य मूळया नाशाज्जीवो निरामयः ॥ ११५३ ।। सूत्रार्थ - उसी प्रकार दर्शन, मोह के उदय से मुच्छा ( स्व स्वरूप की असावधानता) वैचित्य ( स्वस्वरूप की विपरीतता)तथा भ्रम (स्वस्वरूप में संशय)होता है और इसके प्रशान्त होने पर मच्छ के नाश होने से जीव निरोगी (मिथ्यात्व रूप रोग से रहित) होता है।
भावार्थ - जिस प्रकार शराब या धतूरे आदि के नशे में प्राणी अपने को भूल जाता है। मां-बहिन का विवेक खो बैठता है उसी प्रकार अनादि से यह जीव मिथ्यात्व रूप शराब में अपने को भुला हुआ है। शराबीवत् पर को स्व और स्व को पर कहता है किन्तु जब शराब का नशा उतर जाता है तो जीव अपने ठीक होश में आकर प्रसन्न होता है उसी प्रकार जब मिथ्यात्व का नशा उत्तर जाता है तो जीव स्व को स्व और पर को पर अनुभवता है तथा प्रसन्न होता है। उसके चेहरे की प्रसन्नता से सम्यक्त्व रूप शुद्धता टपकती रहती है बस वह प्रसन्नता या शुद्धता का केवल इन्हीं शब्दों म ज्ञान कराया जा सकता है और कुछ विवेचन उस सीधी सम्यक्त्व पयाय का नहीं हो सकता।