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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
अब अनुभय दृष्टि बतलाते हैं - बस्तु स्वरूप से है - अस्ति, पर रूप से नहीं है - नास्ति, उभंय रूप है प्रमाण, ये तीन दृष्टियां तो ऊपर बतलाई ही गई हैं किन्तु एक दृष्टि और है वह अनुभय दृष्टि है। यह दृष्टि कुछ कठिन है। बहुत कम लोगों की समझ में आती है। देखिये क्या सामान्य के प्रदेश भिन्न और विशेष के प्रदेश भिन्न हैं - नहीं, क्या सामान्य स्वरूपआपले लें और विशेष स्वरूप हमें दे दें यह हो सकता है - नहीं, बस यही अनुभय दृष्टि है। अनुभय अर्थात् दोनों रूप नहीं किन्तु अखण्ड। यह दृष्टि सिखलाती है कि वस्तु में सामान्य और विशेष ऐसा भेद ही नहीं हैं। न सामान्य है न विशेष है दोनों नहीं है वह तो अखण्ड है, अभेद्य है। यह ध्यान रहे कि इस दृष्टि को आप शब्द से व्यक्त नहीं कर सकते। जो कुछ आप बोलेंगे वह विशेषण विशेष्य रूप हो जायेगा, भेद रूप पड़ेगा। इसको अवक्तव्य दृष्टि, अनुभय दृष्टि, शुद्ध द्रव्यार्थिक दृष्टि , अनिवर्चनीय दृष्टि, भेद निषेधक दृष्टि कहते हैं। यहाँ शुद्ध शब्द का अखण्ड अर्थ है। इसका विषय केवल अनुभव गम्य है। अनुभय शब्द का अर्थ है दोनों रूप नहीं।
विधिरूप सूत्र सर्वत्र कम एष द्रव्ये क्षेत्रे तथाथ काले च ।
अनुलोमापतिलोमैररत्तीति विवक्षितो मुख्यः ॥ २८७ ॥ अर्थ - यह अस्ति-नास्ति आदि ऊपर कहा हुआ क्रम सब जगह अर्थात् तत्-अतत्, नित्य-अनित्य, एक-अनेक युगलों में भी लगा लेना चाहिए तथा प्रत्येक युगल में द्रव्य से, क्षेत्र से , काल से, भाव से चारों ही जगह लगाना चाहिये। अनुकूलता और प्रतिकूलता के अनुसार जो विवक्षित होता है वह मुख्य समझा जाता है, दूसरा गौण समझा जाता है। __ भावार्थ - जिस प्रकार अस्ति-नास्ति आदि एका प्रध्य के सामान्य विशेष पर लगाया गया है उसी प्रकार शेष तीन युगल भी सामान्य विशेष पर लगेंगे। जिस प्रकार अस्ति-नास्ति को भिन्न-भिन्न दो द्रव्यों पर लगाने वाला पशु है उसी प्रकार शेष तीन युगलों को भी दो द्रव्यों पर लगाने वाला पशु है स्याद्वादी नहीं है। तथा जिस प्रकार अस्ति-नास्ति आदि की मुख्य गौणता में सारा का सारा द्रव्य अस्ति या नास्ति या उभय या अनुभय रूप ही प्रतीत होने लगता है उसी प्रकार शेष युगलों में भी सारा का सारा द्रव्य मुख्य धर्म रूप प्रतीति होने लगता है। जिसकी विवक्षा होगी उस रूपदीखने लगेगा तथा जिस प्रकार यहाँ द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव पर अस्ति-नास्ति आदि लगाये गये हैं, उसी प्रकार शेष तीन युगल भी द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से मुख्य गौण की विवक्षा करते हुये लगेंगे। यह विधिरूप सूत्र है। सर्वत्र लागू होगा।
विधिरूप सूत्र अपि चैवं प्रक्रियया नेतव्याः पञ्चशेषभङ्गाश्च ।
वर्णवदुक्तद्वयमिह पदवच्छेवास्तु तद्योगात् ॥ २८८ ॥ अर्थ - इसी प्रक्रिया के अनुसार बाकी के पाँच भंग भी वस्तु में घटित कर लेना चाहिए।' स्यात-अस्ति' और ' स्यात्नास्ति 'ये दो भंग वर्ण की तरह कह दिये गये हैं। बाकी के ५ भंग पद की तरह इन्हीं दो भंगों के योग से घटित करना चाहिये। ___ भावार्थ - अस्ति-नास्ति दो भंग तो ऊपर कहे। शेष पाँच भाव अस्ति-नास्ति, अवक्तव्य, अस्ति अवक्तव्य, नास्ति अवक्तव्य, अस्ति-नास्ति अवक्तव्य इसी प्रक्रिया से जान लेने चाहिये। वर्णवत् दो अक्षर कहे जैसे घ और ट जैसे उन दोनों अक्षरों के योग से घट पद बनता है, उस प्रकार अस्ति, नास्ति दो कहे। इनके योग से ही शेष पाँच भंग बन जाते हैं। ये इस प्रकार लगाये जाते हैं (१) सामान्य अथवा विशेष जिसकी मुख्यता हो वह स्व कहलाता है। स्व से अस्ति यह पहला अस्ति भंग है।(२)सामान्य अथवा विशेष जिसकी गौणता हो वह पर कहलाता है। पर से नास्ति,यह दूसरा नास्ति भंग है। (३) जब सामान्य और विशेष दोनों एक साथ क्रम से कहने हों तो तीसरा अस्ति-नास्ति भंग है। जैसे वस्तु स्व से (सामान्य से) है और पर से ( विशेष से नहीं है। (४) जब दोनों भंग एक समय में एक साथ विवक्षित हों क्योंकि वस्तु दोनों रूप एक ही समय में है। यह अवक्तव्य नय है। (५-६-७) शेष तीन भंग इनके योग से जान लेना। ये सातों भंग जिस प्रकार अस्ति-नास्ति पर लगाये जाते हैं उसी प्रकार तत्-अतत्, नित्य-अनित्य, एक-अनेक युगलों पर भी लगेंगे, सो जानना। यह भी विधिरूप सूत्र है। सर्वत्र लागू होगा। अन्त में सप्तभंगी विज्ञान देखिये।