________________
३०२
ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
भावार्थ-आचार्य महाराज कहना चाहते हैं कि यपि सांसारिक सुख- लाप पाकिहम ऊपर कह चुके हैं किन्तु अज्ञानी जगत् तो अनादि से अपने अतीन्द्रिय सुख स्वरूप को भूल कर इसी में रत है और इसी को वास्तविक सुख मान रहा है। हम क्या कहें ?
स्तरस्वरूपाच्च्युतो जीवः स्यादलब्धस्वरूपवान ।
नानादुःखसमाकीर्णे संसारे पर्यटचिति ॥१०१०॥ अर्थ-नाना दःखों से व्याप्त संसार में घूमता हुआ जीव अपने स्वरूप से च्युत हो रहा है और स्वरूप को प्राप्त नहीं
भावार्थ-ऐन्द्रिय सुख में रत होने का कारण क्या है तो कहते हैं कि अनादि काल से यह जीव आत्मस्वभाव से अर्थात् अतीन्द्रिय सुख के भोग से च्युत हो रहा है। इसको असली सुख का परिचय ही नहीं है। यही सुख जो वास्तव में दुःखरूप है इसी में सच्चे सुख की कल्पना करके यह जीव मस्त हो रहा है।
शंका ननु किंचिन्छुभ कर्म किंचित् कर्माशुभ ततः ।
क्वचित्सुखं वचिदुरवं तत् किं दुःखं परं नृणाम् ॥ १०११॥ शंका-कोई कर्म शुभ है कोई कर्म अशुभ है। इसलिये कहीं पर सुख है कहीं पर दुःख है तो जीवों के केवल दुःख ही कैसे है?
भावार्थ-संसार में असाता के उदय से होने वाला तो दुःख नाम से प्रसिद्ध है और साता के उदय से होने वाला सुख नाम से प्रसिद्ध है। सच्चे सुख से संसार अनादि से अपरिचित है। उसी के आधार पर शिष्य कहता है कि महाराज कहीं सुख और कहीं दुःख यह तो संसार में प्रत्यक्ष दीख रहा है। आप कैसे कहते हैं कि संसार में दुःख ही है और यह जीव सुख को प्राप्त ही नहीं है।
समाधान सूत्र १०१२ से १०२५ तक १४ नैवं यतः सुखं नैतत् तत्सुरव यत्र नासुरवम् ।
स धर्मो यत्र नाधर्मस्तच्छुभ यत्र नाशुभम् ॥ १०१२।। अर्थ-ऐसा नहीं है क्योंकि यह सुख नहीं है। सुख वह है जहाँ दुःख नहीं है। धर्म वह है जहाँ अधर्म नहीं है। शुभ वह है जहाँ अशुभ नहीं है।
भावार्थ-उत्तर में आचार्य महाराज वस्तु स्वभाव समझाते हैं कि यह भी कुछ सुख है। अभी सुख है तो थोड़ी देर में दुःख है। अरे सुख तो वह है जहाँ फिर अनन्त काल तक दुःख है ही नहीं। वह अतीन्द्रिय सुख है। आत्मा का स्वभाव है और मोक्ष में विद्यमान है। वही धर्म और वही शुभ है। ये यहाँ अतीन्द्रिय सुख के ही पर्यायवाची नाम हैं अधर्म और अशुभ ऐन्द्रिय सुखाभास के नाम हैं जो वहाँ नहीं है।
इदमस्ति पराधीनं सुरवं बाधापुररसरम् ।
__ व्युछिन्न बन्धहेतुश्च विषम दुःस्वमर्थतः ॥ १०१३ ॥ अर्थ-(१) यह सुख पराधीन है (२) बाधा सहित है (३) टूटक है (४) बन्ध का कारण है (५) विषम (हीनाधिक रूप) हैं। इसलिये यह सुख वास्तव में दुःख ही है।
भावार्थ-(१) इन्द्रिय सुख में पाँचों इन्द्रियों के विषय निमित्त पड़ते हैं अत: यह पराधीन है किन्तु अतीन्द्रिय सुख सर्वथा मात्र आत्मा के अधीन है। अतः स्वाधीन होने से वही वास्तव में सुख है (२) इन्द्रिय सुख में बाधा अर्थात् आकुलता है। स्पर्शन के सुख की इच्छा हो तो मैथुन की आकुलता, रसना के सुख की इच्छा हो तो खाने-पीने की आकुलता, गंध के सुख की इच्छा तो सूंघने की आकुलता, देखने के सुख की इच्छाहो तो सिनेमा, स्त्री का रूप इत्यादि देखने की आकुलता, सुनने के सुख की इच्छा तो गाना सुनने या रेडियो इत्यादि बजाने की आकुलता किन्तु अतीन्द्रिय सुख में कोई बाधा नहीं है। वह सर्वथा आत्म-प्रदेशों में आझादरूप है (३) इन्द्रिय सुख टूटक है क्योंकि साता का