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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
अर्थ-अशरण है क्योंकि थोड़ी देर के लिये शान्त हुवे विरोधी कर्म के जीवित अवस्था में रहने से, वह अवश्य अपने रस की स्थिति को (उदय को) प्राप्त होगा ( और फिर यह नष्ट हो जायेगा । इसलिये उसकी शरण क्या)।
भावार्थ-इन्द्रिय ज्ञान कर्म के क्षयोपशम से होता है और वह क्षयोपशम मर्यादित है। उसका समय पूरा होने पर निगोदादि दशा में उसका अभाव हो जाता है। अतः वह आश्रय करने योग्य नहीं है किन्तु अतीन्द्रिय ज्ञान में विरोधी का नाश होने से अब जाने वाला नहीं है अत: शरणभूत है। उपादेय है।
तीन इकडे दिमात्रं षट्षु द्रव्येषु मूर्तस्यैवोपलंभकात् ।।
तत्र सूक्ष्मेषु नैव स्यादरित स्थूलेषु केषुचित् ॥ १०५४ ॥ अर्थ-नाममात्र का ज्ञान है क्योंकि छहों द्रव्यों में मूर्त द्रव्य का ही जानने वाला है। उन ( मूर्त) में भी सूक्ष्मों में प्रवृत्त नहीं होता है। स्थूलों में भी कुछ में प्रवृत्त होता है।
भावार्थ-जगत् में छ: पदार्थ हैं। ५ तो अमूर्त एक मूर्त । अमूर्तिक पदार्थ इन्द्रिय ज्ञान का विषय नहीं है अत: यह ज्ञान नाम मात्र का ज्ञान है क्योंकि छ: पदार्थों में केवल एक मूर्त पदार्थ को ही जानता है। उस मूर्त में भी परमाणु-आदि सूक्ष्म को नहीं जानता, स्थूल को ही जानता है।
सत्स ग्राोय समापिसाटाडोरका:
तत्रापि विद्यमानेषु नातीतानागतेष च ।। १०५५ ॥ अर्थ-और उन (स्थूलों) में भी इन्द्रियों द्वारा ग्रहण योग्य पदार्थों में ही प्रवर्तता है। अग्राह्य पदार्थों में कभी नहीं प्रवर्तता और उन ( ग्राहों) में भी वर्तमानों में प्रवर्तता है। भूत भविष्यत् में नहीं प्रवर्तता ।
तत्रापि सनिधानत्वे सन्निकर्षेषु सत्सु च ।
तचाप्यववाहेहादौ ज्ञानस्यास्तिक्यदर्शनात् ॥ १०५६ ।। अर्थ-उन (वर्तमान ग्राह्यों) में भी योग्य समीपता होने पर सन्निकर्ष वाले पदार्थों में ही प्रवर्तता है तथा उनमें भी अवग्रह-ईहा आदि के होने पर ही ( उस इन्द्रिय) ज्ञान का अस्तित्व देखा जाता है अतः वह दुःखरूप है हेय है किन्तु अतीन्द्रिय ज्ञान मूर्तामूर्त सबको जानता है। परमाणु, कालाणु आदि सूक्ष्म को भी जानता है। बिना इन्द्रियों के जानता है। बिना सन्निकर्ष के जानता है। भूत-भविष्य-वर्तमान तीनों कालीन पदार्थों को जानता है,समीपवती-दरवर्ती सबको जानता है। बिना सन्निकर्ष और बिना अवग्रहादि के जानता है। अतः वह सुखरूप और उपादेय है। अब यह बताते हैं कि इस इन्द्रिय ज्ञान का और निमित्त रूप कर्मों का किसप्रकार सम्बन्ध है और यह कैसे उत्पन्न होता है। इसकी अत्यन्त अस्थिरता का लक्ष कराना चाहते हैं।
समस्तेषु न व्यस्तेषु हेतुभूतेषु सत्स्वपि ।
कदाचिज्जायते ज्ञानमुपर्युयरि शुद्धितः ॥ १०५७ ।। अर्थ-थोड़ों के नहीं किन्तु समस्त कारणों के रहने पर भी कभी-कभी ऊपर-ऊपर में शुद्धि ( कर्म के क्षयोपशम) के होने से उत्पन्न होता है।
भावार्थ-बाहर में आँख, पुस्तक, रोशनी, गुरु आदि सब कारणों के उपस्थित रहने पर भी यदि कर्मों का अधिक क्षयोपशम हो तो होता है अन्यथा बहिरंग सब साधन जुटने पर भी नहीं होता। विद्यालय में प्रत्यक्ष सब साधन होने पर किसी-किसी विद्यार्थी को अधिक क्षयोपशम न होने से इन्द्रिय ज्ञान की प्रवृत्ति नहीं देखी जाती। अब उन कर्मों के क्षयोपशम का क्या नियम है यह बताते हैं।
लाथा मतिज्ञानरय शुतज्ञानस्य वा सतः ।
आलापाः सन्त्यसंरख्यातास्तत्रानन्लाश्च शवतयः ॥ १०५८ ॥ अर्थ-वह कर्म का क्षयोपशम इस प्रकार है कि-सतरूपमति ज्ञान के अथवा श्रतज्ञान के असंख्यात आलाप हैं और उन आलापों में अनन्त शक्तियाँ हैं।