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द्वितीय खण्ड/चौथी पुस्तक
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किया। उन्होंने विषय भोग भी किया होगा। वह विषय उनको रुचिकर भी हुवा होगा। मैं कैसे मान लूं कि बहिरंग में ये सब क्रियाएँ करते हुवे भी आप यही कहते रहें कि उसके विषय अभिलाषा नहीं है। वह रोगवत् समझता है उसे यह क्रिया करनी पड़ती है। मेरी समझ में ये बातें नहीं आती?
समाधान सूत्र १०३५ से १०४४ तक १० सत्यमेतादृशो यावज्जघन्यं परमाश्रितः ।
चारित्रावरणे कर्म जघन्यपदकारणम् ॥ १०३५॥ अर्थ-ठीक है। सम्यग्दृष्टि ऐसा है किन्तु तभी तक कि जबतक जघन्य पद में स्थित है और उस जघन्य पद का कारण चारित्रावरण कर्म है।
भावार्थ--तुमने जो कुछ कहा वह कुछ ठीक सा है। हम तुझे इसका कारण खोल कर १०४४ तक समझाते हैं। सुन ! सम्यग्दृष्टि तो चौथे से सिद्ध तक सभी हैं। सब पर यह बात लागू नहीं होती केवल कुछ पर थोड़ी-सी लागू होती है और इसका कारण यह है कि अभी उस ज्ञानी की जघन्य अवस्था है। दृष्टि में भेद विज्ञान है। वस्तु का स्वरूप ठीक झलक रहा है फिर भी अभी चारित्र में निर्बलता है। विकल्प उठता है। स्वरूप में ठहर नहीं सकता है इसकारण चारित्र मोह में जुड़ जाता है और विषयों पर लक्ष चला जाता है।
तदर्थेषु रतो जीवश्चारित्रावरणोटयात् ।
तद्धिना सर्वतः शुद्धो वीतरागोऽस्त्यतीन्द्रियः ॥ १०३६।। अर्थ-(वह सम्यग्दृष्टि) जीव चारित्रमोहनीय के उदय से उन इन्द्रियों के विषयों में रत (लगा हुवा)। और उस (चारित्र मोह कर्म के उदय) के बिना सर्वथा शुद्ध, वीतराग, अतीन्द्रिय है।
भावार्थ-भाई सर्वज में और छोटे जानी में इतना ही तो अन्तर है कि उस में राग नहीं है। इसमें चारित्र सम्बन्धी कुछ राग है। इस राग के कारण ही तो इसकी जघन्य दशा बनी हुवी है। यदि इस राग को उसमें से गौण करके देखो तो यह भी केवलीवत् शुद्ध वीतराग अतीन्द्रिय है। उसका लघुनन्दन ही तो है। वैसा होने जा रहा है।
दृगमोहस्य क्षतेरतस्य नून भोगाननिच्छितः ।
हेतुसदभावतोऽवश्यमुपभोगक्रिया बलात् ॥ १०३७॥ अर्थ-दर्शनमोहनीय के अभाव से निश्चय करके भोगों की इच्छा नहीं रखने वाले उस सम्यग्दष्टि के ( भोगक्रिया के ) कारणभूत कर्म के सद्भाव से ( उदय से ) अवश्य उपभोग क्रिया बलपूर्वक होती है।
भावार्थ-अब आचार्य सिद्धान्तिक रीति से समझाते हैं कि भाई, आत्मा में श्रद्धा और चारित्र दो भिन्न-भिन्न गुण हैं। उनके कार्य भी सर्वथा भिन्न-भिन्न हैं। उनके आवरण भी भिन्न-भिन्न हैं। श्रद्धा गुण प्रगट होने पर नियम से भोगों की इच्छा का अभाव हो जाता है ऐसा अविनाभाव है क्योंकि भोगों की इच्छा अनन्तानुबन्धीका राग है और उसका उत्पादक दर्शनमोह है जिसका उसके अभाव है। इस अपेक्षा से तो वह ज्ञानी भोगों में निरभिलाषी सिद्ध है। बाकी चारित्रमोह भाव के सद्भाव के कारण भोगों पर लक्ष जाता है। सो इस दोष के कारण आप उसे यह नहीं कह सकते कि उसे भोगों को इच्छा है।
नासिद्धं तद्विरागत्वं क्रियामात्रस्य दर्शनात् ।
जगतोऽनिच्छतोऽप्यरित दारिद्रयं मरणादि च ॥ १०२८।। अर्थ-वह विरागपना अर्थात् भोगों में अनिच्छापना (विषयों में ) केवल क्रिया मात्र के देखने से असिद्ध नहीं है किन्तु सिद्ध है जैसे जगत के नहीं चाहते हुये भी दरिद्रता और मरण आदि होता है।
भावार्थ-भाई ! आपने जो यह कहा था कि क्योंकि उसके बहिरंग क्रिया है इसलिये इच्छारहितपना नहीं कह सकते सो बात यह है कि किसी बहिरंग क्रिया रहते सन्ते उसके अनुकूल अन्तरंग परिणाम की सिद्ध नहीं हो सकती। बहुत कार्य ऐसे हैं कि हम नहीं चाहते और होते हैं। अभी हमारी दुकान के सामने कोई लड़ाई या खून हो जाय तो गवर्नमेन्ट हमें गवाही में बुला लेती है। नहीं चाहते हुये भी जाना पड़ता है। अन्तरंग परिणाम जाने का बिल्कुल नहीं है। अन्तरंग परिणाम तो व्यापार में है कि नुकसान होगा किन्तु क्रिया कचेहरी जाने की हो रही है। कौन चाहता है मैं दरिद्री रहूँ।