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द्वितीय खण्ड/चौथी पुस्तक
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अर्थ-उपर्युक्त विषय के कथन करने का सब तात्पर्य यही है कि इस जगत में सुख नाम से कहा जाता है वह दुःख ही है। और उस दुःख के अनात्म धर्म होने से सम्यग्दृष्टियों की उसमें अभिलाषा नहीं है। __ भावार्थ-मिथ्यादृष्टि पुण्य-पाप ऐसे दो भेद करते हैं। सम्यग्दृष्टि धर्म और अधर्म ऐसे दो भेद करते हैं। और पुण्य पाप को अधर्म में गिनते हैं। मिथ्यादृष्टि शुभ-अशुभ ऐसे दो भेद करते हैं सम्यग्दृष्टि शुद्ध-अशुद्ध ऐसे दो भेद करते हैं और शुभ-अशुभ दोनों को अशुद्ध में गिनते हैं। मिथ्यादृष्टि सुख-दुःख ऐसे दो भेद करते हैं सम्यग्दृष्टि अतीन्द्रिय सुख और वैषयिक दुःख ऐसे दो भेद करते हैं। ऐसा क्यों है ? मिथ्यादृष्टि को स्वभाव की खबर नहीं है वह केवल
भेद करता है। सम्यग्दष्टि एक ओर आत्मा को देखते हैं दूसरी ओर अनात्मा को। दोनों की दृष्टि में महान् अन्तर है। क्योंकि इन्द्रियसुख अनात्मधर्म है, कर्म का धर्म है, पुद्गल का धर्म है। विभाव है, वास्तव में दुः ख है अतः सम्यग्दृष्टियों को उसमें अभिलाषा नहीं होती। स्वर्ग का भोजन खाने वाला इस लोक के भोजन की इच्छा नहीं करता उसी प्रकार अतीन्द्रिय सुख की कणिका मात्र का भी भोग करने वाला ज्ञानी इसकी अभिलाषा क्या करेगा?
वैषयिकसुखे न स्यादागभावः सुदृष्टिनां ।
रागस्याज्ञानभावत्वादस्ति मिथ्यादृशः स्फुटं ॥ १०२७ ।। अर्थ-सम्यगाडि के विषय मुख में समा गाल ) गादेगपना नहीं होता है। राग के अज्ञानभाव होने से प्रगट मिथ्यादृष्टि के होता है।
भावार्थ-विषय सुख को वास्तविक सुख मानना तत्त्व की भूल है। इसको मिथ्यात्व या अज्ञान भाव या रागभाव कहते हैं। ये सब पर्यायवाची शब्द हैं। सम्यग्दृष्टि के विषय सुख में उपादेयता न होने के कारण रागभाव नहीं है।
सम्यग्दृष्टेस्तु सम्यक्त्वं स्यादवस्थान्तरं चितः ।
सामान्यजनबत्तस्मान्जाभिलाषोडरय कर्मणि || १०२८॥ अर्थ-सम्यग्दृष्टि के तो सम्यक्त्वरूप आत्मा की अवस्थान्तर है इसलिये सामान्य जीवों (लौकिक जनों ) की तरह इसकी कर्म में (कर्मोदय जन्य सामग्री में) अभिलाषा नहीं है।
भावार्ध-पहले नं. ९६५ में बता आये हैं कि सम्यक्त्व आत्मा की ज्ञानचेतना रूप भिन्न जाति की अवस्था है। विषयसुख की अभिलाषा का अविनाभाव तो कर्मचेतना और कर्मफलचेतना के साथ है वह अज्ञानी के होती है। सम्यग्दृष्टि के ज्ञानचेतना है। ज्ञानचेतना वाले के ज्ञान का आश्रय है। कर्म का आश्रय नहीं है। दूसरे सम्यग्दृष्टि को स्वपर का भेद विज्ञान है। वह सामान्य आत्मा अर्थात् शुद्ध जीवास्तिकाय को मूल आत्ममेटर समझता है शेष सब कुछ कर्म समझता है। मिथ्यादृष्टि को मूल जीवास्तिकाय का ज्ञान नहीं है। वह कर्मजनितसामग्री को ही 'स्व' समझता है। सम्यग्दृष्टि की मूल जीवास्तिकाय में 'स्व' की श्रद्धा है। शेष सब कुछ पर अर्थात् कर्म मानता हुआ उसमें उसकी अभिलाषा नहीं है। जिसकी जो 'स्व' समझेगा। उसी में उसकी अभिलाषा होगी - ऐसा अविनाभाव है।
उपेक्षा सर्वभोगेषु सदृष्टेर्दृष्टरोगवत् ।
अवश्यं तदवस्थायास्तथाभावो निसर्गाजः || १०२९।। अर्थ-जैसे रोग में सब की उपेक्षा देखी जाती है उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि के सब भोगों में उपेक्षा(अरुचि अचपकवैराग्य) होती है। उस (सम्यक्व) अवस्था का वैसा भाव होना(विषयों में अरुचि होना) अवश्य स्वभाव से ही है।
भावार्थ-मिथ्यात्व का और विषयों में रुचि का अविनाभाव है तथा सम्यक्त्व का और विषयों में अरुचि का अविनाभाव है। ऐसा वस्तु स्वभाव है। स्वाभाविक है। सम्यग्दष्टि विषयों को रोगवत् समझता है। जैसे रोग में किसी को रुचि नहीं होती । इस प्रकार सम्यग्दृष्टि की विषय में रुचि नहीं होती।
अस्तु रुढिर्यथा ज्ञानी हेर्य ज्ञात्वाऽथ मुञ्चति ।।
अत्रास्त्यावस्थिकः कश्चित्परिणामः सहेतुकः ।। १०३०॥ अर्थ-यह तोरूढ़ि है कि ज्ञानी(विषयों की)हेय जानकर त्याग करता है किन्तु इस (त्याग) में उस (सम्यक्त्व) अवस्था का कोई परिणाम ही कारण है ( पूर्व श्लोक नं. ९६५ तथा १०२८)।