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द्वितीय खण्ड/चौथी पुस्तक
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भावार्थ-जीव विषयों को भोगता अपना दुःख दूर करने और सुख प्राप्ति के हेतु है किन्तु यह प्रत्यक्ष है कि हम उनको जितना भोगते हैं उतनी अधिक-अधिक भोगने की इच्छा रूप रोग उत्पन्न होता चला जाता है और जीव का दुःख बढ़ता ही चला जाता है। (श्री प्रवचनसार गा. ७४, ७५)
इन्द्रियार्थेषु लुब्धानामन्तर्दाहः सुदारुणः ।
तमन्तरा यतस्तेषां विषयेषु रतिः कुतः ॥ १०२३॥ अर्थ-इन्द्रियों के विषयों में लोलुपियों के कठोर अन्तरंग जलन पाई जाती है क्योंकि उस (अंतरंग जलन )के बिना उन ( जीवों) की विषयों में रति कैसे हो सकती है? भावार्थ-विषयों में रति प्रत्यक्ष अन्तरंग इच्छा रूप रोग (जलन ) की सूचना है ( श्री प्रवचनसार ६४,७४, ७५ )
दृश्यते रतिरेतेषां सुहितानामिवेक्षणात् ।
तृष्णाबीजं जलौकाला दुष्टशोणितकर्षणात् || १०२४ ॥ अर्थ-किन्तु इनके विषयों को हितकर मानने से ( उनमें) रति देखी जाती है वह रति तृष्णा की बीज है (अर्थात् तृष्णा की वृद्धि करने वाली है )। जैसे जोकों के खराब खून चूसने से उसमें रति देखी जाती है वह पुन:-पुनः चूसने रूप तृष्णा की वृद्धि करती रहती है।
भावार्थ-यह प्रत्यक्ष है कि खराब खून शरीर का गंदा पदार्थ है तो भी जोंक उसे चूसने में आनन्द मानती है। पुनः पुनः चूसने की इच्छा बढ़ती जाती है यहाँ तक कि अधिक चूसकर पेट फटकर मर भी जाती है। उसी प्रकार विषय प्रत्यक्ष ग्लानिमय हैं । महान् दुःखरूप हैं। फिर भी जीव उनमें सुख मानकर रमता है। पुनः-पुन: भोगने की इच्छा बहती है और जीव महान दःखी होता है। फलस्वरूप अनिष्ट कर्मों को बांध कर नरव (श्री प्रवचनसार ६४,७४, ७५)
शकचक्रधरादीनां केवलं पुण्यशालिनां 1
तृष्णाबीजं रतिस्तेषां सुरवावाप्तिः कुतस्तनी ॥ १०२५ ॥ अर्थ-केवल पुण्यशाली इन्द्र, चक्रवती आदिकों के विषयों में) रति पाई जाती है जो तृष्णा की बीज(वृद्धि करने वाली) है। इसलिये उनके सुख की प्राप्ति कैसी ? अर्थात् विषयों से कभी किसी की तृप्ति नहीं होती उलटा रोग बढ़ता ही चला जाता है।
भावार्थ-कोई यह कहे कि यहाँ तो कभी साता है तो कभी असाता है अतः दुःख है किन्तु स्वर्ग में तो निरन्तर साता है वहाँ तो सुख है। आचार्य महाराज उत्तर देते हैं कि बहिरंग दृष्टि से मत देख । वस्तु स्वभाव से देख। उनका विषयों में रमना ही उनकी अन्तरंग इच्छा रूप जलन का सूचक है तथा उन भोगों से उनकी पुनः-पुनः भोगने की इच्छा बढ़ती ही जाती है अर्थात् आकुलता रूप दुःख लगा ही रहता है। शान्त नहीं हो पाता। खैर; कभी संतोष और तृप्ति हो जाती तो उसे ही सुख मान लिया जाता (श्री प्रवचनसार ६४,७३, ७४, ७५)। प्रमाण-१००६ से १०२५ तक का सब विषय श्री प्रवचनसारजी गाथा ५३ से ७७ तक में से लिया गया है।
श्री प्रवचनसारजी में कहा है जेसिं विसयेसु रटी तेसिं दुक्रवं वियाण सभात ।।
जइ तंण हि सद्धभावं वातारो णत्थि विसयत्थं ॥४॥ अर्थ-जिनके विषयों में रति है उनके दुःख स्वाभाविक जानो कारण कि जो दुःख { उनका) स्वभाव न होय तो विषयों के लिये व्यापार न होवे ।
टीका-जिनकी हत (निकष्ट-निंद्य ) इन्द्रियाँ जीवित हैं, उन्हें उपाधि के कारण (बाह्य संयोगों के कारण, औपपाधिक) दुःख नहीं है, किन्तु स्वाभाविक ही है, क्योंकि उनकी विषयों में रति देखी जाती है। जैसे-हाथी हथिनीरूपी कुट्टनी के शरीरस्पर्श की ओर, मछली बंसी में फंसे हुये मांस के स्वाद की ओर, भ्रमर बन्द हो जाने वाले कमल के गंध की ओर, पतंगा दीपक की ज्योति के रूप की ओर, और हिरन शिकारी के संगीत के स्वर की ओर