________________
२१८
पहला अवान्तर अधिकार
सत् की चार विशेषतायें ७७१ से ७९५ तक २५ (क) जीव- अजीव की विशेषता ७७१ से ७७४ तक
ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
जीवाजीव विशेषोऽस्ति द्रव्याणां शब्दतोऽर्थतः ।
चेतनालक्षणो जीवः स्यादजीवोऽप्यचेतनः ॥ ७७१ ॥
अर्थ- द्रव्यों में (सतों में ) शब्द से और अर्थ से जीव- अजीव की विशेषता है। जीव चेतना लक्षण है और अजीव अचेतन लक्षण है।
भावार्थ - सामान्य दृष्टि से छहों द्रव्यों को अपने सामने रखिये और देखिये कि सामान्य रूप से छहों सत् दीखने पर भी एक सत् तो उनमें चेतन नज़र आयेगा और शेष अचेतन । जो चेतन है उसको शब्द से भी जीव कहते हैं और भाव से भी वह जीव ही है क्योंकि जीवपना चेतना का ही नाम है। शेष पाँच में चेतना नहीं है अतः वे शब्द से अजीव हैं और भाव से भी अजीव हैं। आचार्य महाराज ने सत् की विशेषतायें बतलाते हुये सबसे पहले भेद विज्ञान रूपी कुलहाड़ा मारा ताकि जीव को यह सूझ पड़े कि वह तो चेतन सत् है और शरीर धन धान्यादि जिनमें उसकी बुद्धि अपनेपने की अटकी हुई है वह अचेत सत् है। चेतन सत् अचेतन सत् को छू भी नहीं सकता फिर अपना कैसा? कितनी स्पष्ट बात है फिर बड़े-बड़े दिगम्बर तक त्यागी और धुरन्धर विद्वान शास्त्रों के पोधे के पोधे पढ़कर भी इस चेतनअचेतन की एकत्वबुद्धि को न मिटा सके। आश्चर्य है। अब कोई जीव को ही न मानता हो तो उसके लिये जीव- अजीव दोनों की सिद्धि करते हैं-
नासिद्ध सिद्धदृष्टांताच्चेतनाचेतनद्वयम् ।
जीवद्वपुर्घटादिभ्यो विशिष्टं कथमन्यथा ॥ ७७२ ॥
अर्थ-चेतन और अचंतन ये दो भिन्न-भिन्न पदार्थ हैं यह बात असिद्ध नहीं है किन्तु प्रसिद्ध दृष्टांत से सिद्ध है। यदि चेतन-अचेतन दोनों को जुदे जुदे न मानकर एक ही माना जाय तो जीव सहित शरीर में और घट वस्त्र आदिक में जो प्रत्यक्ष अन्तर दीखता है वह नहीं दीखना चाहिये। किन्तु भेद दीखता है। इससे जीव- अजीव भिन्न-भिन्न सिद्ध हो जाते हैं ।
भावार्थ- यदि शरीर में जीव न होता तो यह भी घड़े की तरह मुरदावत पड़ा रहता किन्तु इसमें घड़े आदि के अतिरिक्त जो जानना देखना, सुख चाहना, दुःख से डरना राग द्वेष मोह का करना और सुख-दुःख का भोगना ( श्री पञ्चास्तिकाय गा. १२२) आदि ऐसी क्रियायें प्रत्यक्ष दीखती हैं जो शरीर में घट पट आदि से भिन्न चेतन पदार्थ की सत्ता प्रत्यक्ष सिद्ध करती हैं। बहुत से नास्तिक लोग हैं जो जीव का अस्तित्व ही नहीं मानते, उनके लिये ग्रन्थकार ने जीव सिद्धि का प्रयास किया है। अब ग्रन्थकार स्वयं अनुमान प्रयोग से जीव की सिद्धि करके दिखलाते हैं
अस्ति जीवः सुखादीनां स्वसंवेदनसमक्षतः ।
यो नैवं स न जीवोऽरित सुप्रसिद्धो यथा घटः ॥ ७७३ ॥
अर्थ- जीव है क्योंकि सुख-दुःखादि का स्वसंवेदन प्रत्यक्ष होता है। जो सुख दुःखादि का स्वसंवेदन प्रत्यक्ष नहीं करता वह जीव भी नहीं है जैसे सुप्रसिद्ध घड़ा (यहाँ सुख-दुःख वैभाविक परिणति के लिये आया है ) 1
भावार्थ--"मैं सुखी हूँ" अथवा "मैं दुःखी हूँ" इस प्रकार आत्मा में मानसिक स्वयंवेदना ज्ञान प्रत्यक्ष होता है। सुख-दुःख का अनुभव ही आत्मा को जड़ से भिन्न सिद्ध करता है। घट वस्त्र आदिक जड़ पदार्थों में सुख-दुःख की अनुभूति नहीं होती है इसलिये वे जीव भी नहीं हैं। इससे सुख-दुःखादि का अनुभव करने वाला जीव पदार्थ सिद्ध होता है। और व्यतिरेक दृष्टांत से अजीव भी सिद्ध होता है।
हेतुनाथेन
इति
प्रत्यक्षेणावधारितः ।
साध्यो जीवः स्वसिद्ध्यर्थमजीवश्च ततोऽन्यथा ॥ ७७४ ॥
अर्थ - इस स्वसंवेदन रूप प्रवल हेतु सहित प्रत्यक्ष प्रमाण से अपनी सिद्धि के लिये साध्य जीव निश्चित हो गया। जो इससे अन्य है अर्थात् स्वसंवेदन प्रत्यक्ष नहीं है। वह अजीव है। यह भी सिद्ध हो गया।