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द्वितीय खण्ड/चौथी पुस्तक
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ही होता है ( बल्कि संवर निर्जरा होती है। ऐसा वस्तु स्वभाव है। इस वस्तु स्वभाव को शिष्य को समझाने के लिये उसके मुख से उपर्युक्त दो शंकायें कराई गई हैं। यह ध्यान रहे कि शुद्धाशुद्ध उपलब्धि कोई नहीं होती। ऐसा नहीं है कि मिथ्यादृष्टि के अशुद्धोपलब्धि हो, सातवें गुणस्थान से शुद्धोपलब्धि हो और चौथे-पांचवें-छठे में शुद्धाशुद्धोपलब्धि हो । तथा ऐसा भी नहीं है कि ग्यारह अंग वाले मिथ्यादृष्टि मनि के या किसी भी पढ़े-लिखे या बती मिध्यादष्टि के कुछ अंश में अशुद्धोपलब्धि हो और कुछ अंश में शुद्धोपलब्धि हो। यह सब धारणायें गलत हैं। ऐसा भी नहीं है कि अशुद्धोपलब्धि मिथ्यादृष्टि के कथंचित बन्ध कराती है। किन्तु सर्वथा बन्ध कराती है ऐसा भी नहीं है कि सम्यग्दष्टियों के शुद्धोपलब्धि कथंचित अबंध करने वाली हो किन्तु सर्वथा अबंध करने वाली है। उसको नियमबद्ध करने के लिए ही उपर्युक्त शंकायें कराई गई हैं।
. समाधान सत्यं शुद्धारित सम्यक्त्वे सैवाशुद्धास्ति तद्विना ।
अरत्यजन्धफला तत्र सैव बन्धफलान्यथा ॥९८५।। अर्थ-ठीक है (१) सम्यक्त्व के होने पर वह आत्मोपलब्धि शुद्ध है और वही आत्मोपलब्धि सम्यक्त्व के बिना अशुद्ध है (२) और उस सम्यक्त्व में बंध करने वाली नहीं है अन्यथा अर्थात् सम्यक्त्व के अभाव में वह ही बंध करने वाली है।
भावार्थ-दोनों शंकाओं के दो उत्तर दे दिये हैं।। १)शुद्धोपलब्धि सम्यकदष्टि ही है और बन्ध करने वाली नहीं ही है (२) अशुद्धोपलब्धि मिथ्यादृष्टि के ही है और बन्ध करने वाली ही है। ऐसा नियम कहा। अब इस नियम को शंका-समाधान द्वारा पीसते हैं तथा ऐसा ही क्यों है इसके कारण को भी स्पष्ट करेंगे। सम्यग्दृष्टि के सामान्य का ही संवेदन है तथा मिथ्यादृष्टि के विशेष का ही संवेदन है सूत्र ९८६ से १००५ तक २०
शंका ९८६-९८७ ननु सद्दर्शनं शुद्ध स्यादशुद्धा मृषा रुचिः । तत्कथं विषयश्चैकः शुद्धाशुद्धविशेषभाक ॥ ९८६ ॥ यद्वा नवसु तत्वेषु चारित सम्यग्दृगात्मनः ।
आत्मोपलब्धिमात्रं वै साचेच्छुद्धा कुतो नव ॥९८७॥ शंका-(१)आपने फरमाया कि सम्यग्दर्शन शुद्धात्मोपलब्धि रूप ही है और मिथ्यादर्शन अशुद्धात्मोपलब्धि रूप ही है। परन्तु जब उन दोनों का विषय एक (आत्मा) ही है तो वह ( आत्मा) शुद्ध और अशुद्ध दो प्रकार के विरुद्ध विशेषणों को धारण करने वाला कैसे हो जाता है ? अथवा( २)क्या सम्यग्दृष्टि जीव के नौ तत्त्वों में मात्र आत्मोपलब्धि होती है ? यदि मात्र आत्मोपलब्धि होती है तब तो ठीक है। यदि वह आत्मोपलब्धि शुद्ध है तो नौ पदार्थ कहाँ रहे? अर्थात् "तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शन" में नौ तत्त्वों के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहा है। नौ तत्त्व तो विशेष रूप हैं, पर्याय हैं, अशुद्ध हैं। उनको आत्मोपलब्धि रूप तो कह सकते हैं पर शुद्धात्मोपलब्धि रूप कैसे कह सकते हैं? यदि शुद्ध कहते हैं तो नौ नहीं रहते (शिष्य नौ पदार्थों की राग सहित श्रद्धा को ही सम्यग्दर्शन कहना चाहता है। सामान्य के संवेदन रूप शुद्ध भाव को नहीं)।
भावार्थ-(१)शंकाकार कहता है कि यदि सम्यग्दर्शन और मिथ्यादर्शन दोनों का विषय एक आत्मा है तो आत्मा का स्वरूप तो एक प्रकार का है वह सम्यग्दृष्टि को शुद्ध रूप से अनुभव में आये और मिथ्यादृष्टि को अशुद्ध रूप से अनुभव में आये, यह कैसे हो सकता? अथवा यदि (२) सम्यग्दर्शन और मिथ्यादर्शन दोनों का विषय नौ तत्त्व है तो नौ तत्त्व भेद रूप हैं। अशुद्ध हैं। मिथ्यादृष्टि को वे अशुद्ध रूप से ही अनुभव में आ रहे हैं। सो तो ठीक है। यदि वे सम्यग्दर्शन का भी विषय है और तत्त्वार्थ श्रद्धान को सम्यादर्शन कहा भी है तो महाराज उनका अनुभव मात्र आत्मोपलब्धि रूप या अशुद्ध आत्मोपलब्धि रूप कहो तो ठीक है पर आप तो सम्यग्दृष्टि के शुद्धात्मोपलब्धि कहते है यह कैसे हो सकता है? जिसका विषय अशुद्ध है वह शुद्ध रूप से कैसे अनुभव में आ सकता है? शिष्य की दोनों शंकाओं का आशय एक ही है। केवल कथनशैली का अन्तर है।