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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
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५. पं. दीपचन्दजी शाह के विचार अनुभव प्रकाश पन्ना ७२ में कहा है-तिस सम्यग्दृष्टि के चारित्र अशुद्ध परिणमन सौं बंध होय सकता नाहीं। तिन उपयोग परिणामों ने बंध आस्रव तिन अशुद्ध परिणामन की शक्ति कीलि राखी है। तातै निरास्रव निरवन्ध है।।
आत्मावलोकन पत्रा ११४ में कहा है-चौथे स्थान हैं पप्यग्दुमि के सवर चारित गण की पाक्ति बुद्धिरूप जब विकल्प होइ परन है - विषय, कषाय, भोग सेवनरूप, इष्टरुचि, अनिष्ट अरुचि, हिंसारूप रति, अरतिरूप, अविरतिरूप, परिग्रह विकल्परूपादि करि अथवा शुभोपयोग विकल्परूपादिकरि, बुद्धिरूप जे जब शक्ति परन है, (तब )ऐसे परावलंबन चंचलतारूपमैली भी होइ है, तो भी तिन शक्तिनिकर(ज्ञानी)आस्त्रवबंध विकार कॉन उपजइ। काहे ते ?(क्योंकि ) सम्यग्दृष्टि अपनी विकल्परूप बुद्धिपूर्वक चारित्र चेष्टा को जानने को समर्थ है, तिस चेष्टा को जानते ही सम्यग्दृष्टि को विषय भोगादिभाव, विकाररूप जुदा ही प्रतिबिंब है अवरु तिस विषै चेतना स्वभाव भाव जुदा प्रवर्ते है। एक ही काल वि. सम्यक् ज्ञान को जुदे-जुदे प्रतक्ष होइ है। इस कारण से तिस बुद्धिरूप चारित्र शक्तिनि विष राग-द्वेष-मोह विकार नहीं पोहता ( घुस जाता)।
आत्मावलोकन पन्ना १६०-१६१ में कहा है-ऐसे जु मन इन्द्री संज्ञाधारी आचरण अरु स्बाद परिणाम तिस सम्यग्दृष्टि के तिन मन इन्द्री संज्ञाधारी सम्यग् उपयोग परनाम ही के साथ है। परन्तु तिस सम्यग्दृष्टि के मन इन्द्री संज्ञा अशुद्ध चारित्र परनामहि स्याँ बंध आस्त्रव होता नाहीं। सो काहे का गुण है ? तिस सम्यग्दृष्टि के तिन मन इन्द्री संज्ञाधारी
चारित्र परनामन के साधिवे उपयोगही के परनाम सम्यक सविकल्प रूप ही है। तातें तिन मन इन्द्री संज्ञाधारी चारित्र अशद्ध परिणामों से बन्थ आस्त्रव होड़ सकता नाहीं। तिन उपयोग सम्यक् परिणामों ने बंध आश्रव तिन अशुद्ध चारित्र परिणाम ही की बन्ध शक्ति कील राखी है। तातें सम्यग्दृष्टि बुद्धिपूर्वक आचरण करि निरबन्ध निरास्त्राव हुआ है। ऐसे सम्यग्दृष्टि के मर इन्द्री संज्ञाधारी सम्यक् उपयोग परिणाम अरु मन इन्द्री संज्ञाधारी अशुद्ध चारित्र परिणाम ए जु है दो। परनामहि का प्रवाह चल्या जाइ है सम्यग्दृष्टि के।
नोट-अब अत्मा के उस सामान्य स्वरूप को दिखलाते हैं कि जिस रूप ज्ञानी अपने को अनुभव करता है और जिस अनुभव का यह सब फल है। यह ध्यान रहे शिष्य की ९८६,९८७ में की गई शंका का समाधान चल रहा है। आत्मा का वह सामान्य स्वरूप कि जिस रूप ज्ञानी अपने को अनुभव करता है सूत्र १००१ से १००५ तक ५ इकडे !
ज्ञानी ज्ञानेकपात्रत्तात् पश्यत्यात्मानमात्मवित् । बद्धस्पृष्टादिभावानाभस्वरूपादनास्पदम नामस्वरूपादनास्पदम्
॥१००१॥ अर्थ-आत्म-अनुभवी ज्ञानी अपने को सदा द्रव्यदृष्टि से एक ज्ञान का ही पात्र-स्थान-ज्ञानधन-ज्ञानमय देखता है (अनुभव करता है) और अपने को १-बद्ध (द्रव्यकर्म से बंधा हुआ)२-स्पृष्ट ( नोकर्म से छुवा हुआ) ३-अन्य अन्य (नरनारकादि रूप) ४-अनियत (ज्ञान की हानि वृद्धि सहित), ५-सविशेष ( गुण भेद सहित), ६-संयुक्त ( राग सहित) भावों का अस्थान जानता है क्योंकि ये भाव आत्मा का स्वरूप नहीं है। अर्थात् ये बद्धस्पृष्टादि ५ भाव हैं। ज्ञानी अपने को इनसे रहित अनुभव करता है। भावार्थ १००५ के अन्त में देखिये ।
ततः स्वादु यथाध्यक्ष स्वमासादयति स्फुटम् ।
अविशिष्टमसंयुक्तं नियत स्वमनन्यकम् ॥ १००२ ।। अर्थ-इसलिए (ज्ञान एकपात्र होने से और बद्धस्पष्टादिभावों का अस्थान होने से) अपने को स्वसंवेदन प्रत्यक्ष द्वारा स्पष्ट रीति से १-अविशिष्ट ( गुणभेदरहित), २-असंयुक्त (राग रहित ), ३-नियत ( अनन्त ज्ञानादिरूप), ४-अनन्यकं (नर-नारकादि पर्यायों रहित ) अनुभव करता हुआ अतीन्द्रिय सुख को प्राप्त करता है। भावार्थ १००५ के अंत में।
अथाबद्धमथास्पृष्टं शुद्ध सिद्धपदोपमम् ।
शुद्धस्फटिकसंकाश निःसंग व्योमवत् सदा ॥ १००३ ।। अर्थ-और सदा अपने को १-अबद्ध (द्रव्य कर्म के बन्ध रहित)२-अस्पष्ट (नोकर्म के स्पर्श रहित),३-शुद्ध (नौपदार्थरूप विशेष परिणमन से रहित),४-सिद्धसमान (आठ गुण सहित)५-शुद्ध स्फटिक के समान विकार रहित