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द्वितीय खण्ड/चौथी पुस्तक
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-... - । - - अर्थ-ज्ञानी कर्म को न तो करता है और न भोगता है। वह कर्म के स्वभाव को मात्र जानता ही है। इस प्रकार मात्र जानता हुआ करने और भोगने के अभाव के कारण शुद्ध स्वभाव में निश्चल ऐसा वह वास्तव में मुक्त ही है।
भावार्थ-वास्तव में जीवनमुक्त केवली को कहते हैं और केवली वह है जो पर के कर्ता भोक्तापने का भाव नहीं करता। मात्र ज्ञाता ही रहता है। सो ज्ञानी ने जिस आत्मस्वभाव का आश्रय किया है, स्वभाव से वह त्रिकाल कर्ता भोक्तापने से रहित मात्र ज्ञायक ही है। और उस ज्ञायक का आश्रय करके ज्ञानी पर्याय में भी कर्ता भोक्तापने को समस्त रूप से छोड़ता हुआ ज्ञानमार्गानुचारी होने से ज्ञायक अर्थात् जीवनमुक्त ही है। ( श्री पंचास्तिकाय गाथा ७०)
३.पं. राजमलजी के विचार श्री समयसार जी कलशटीका पत्रा ८२ भावार्थ में कहा है - सम्यग्दृष्टि जीव की-मिथ्यादृष्टि जीब की क्रिया तो एकसी है, क्रिया सम्बन्धी विषय कषाय भी एकसा है; पर, द्रव्य का परिणमन भेद है-स्पष्टीकरण-सम्यग्दृष्टि का द्रव्य शुद्धत्व रूप परिणमा है। इसलिए जो कोई परिण द्धिपूर्वक अनुभवरूप है अथवा विचार रूप अथवा व्रत किया रूप है अथवा भोगाभिलाष रूप है अथवा चारित्र मोह के उदय क्रोध, मान, माया, लोभ रूप है सो सब ही परिणाम ज्ञानजाति में घटता है। इसलिए जो कोई परिणाम है वह संवर निर्जरा का कारण है। ऐसा ही कोई द्रव्यपरिणमन का विशेष है। ___ मिथ्यादृष्टि का द्रव्य अशुद्ध रूप परिणमा है। इसलिये जो कोई मिथ्यादृष्टि का परिणाम, अनुभव रूप तो विद्यमान ही नहीं, इसलिए सूत्र सिद्धान्त के पाठ रूप है, अथवा व्रत तपश्चरण रूप है अथवा दान, पूजा, दया,शील, रूप है अथवा भोगाभिलाष रूप है अथवा क्रोध, मान, माया, लोभ रूप है। ऐसा सब परिणाम अज्ञानजाति का है, इसलिये बंध का कारण है। संवर निर्जरा का कारण नहीं, द्रव्य का ऐसा ही परिणमन विशेष है।
श्री समयसारजी कलश टीका पन्ना १३० के भावार्थ में कहा है-जितने काल तक जीव सम्यक्त्व के भाव रूप परिणमा था, उतने काल चारित्र मोह कर्म कीले हुए सांप की तरह अपना कार्य करने को समर्थ नहीं था। जिस काल वही जीव सम्यक्त्व के भाव से भ्रष्ट हुआ, मिथ्यात्व भाव रूप परिणमा, उस काल उकीले सांप की तरह अपना कार्य करने को समर्थ हुआ।
४. पं. बनारसीदासजी के विचार
प्रश्न ज्ञानवन्त को भोता निर्जरा हेतु है।
अज्ञानी को भोग बंधफल देतु हैं | यह अचरज की बात हिय नर्टि आवही।
पूछे कोऊ शिष्य गुरु समझावही ॥२१॥
उत्तर दया दाल पूजादिक विषय कषायादिक,
दुहु कर्मभोग पै दुहु को एक रखेत है । ज्ञानी मूढ कर्म करत दीसे एकसे पै.
परिणाम भेद ज्यारो-न्यारो फल देत है । ज्ञानवंत करनी करे पै उदासीन रूप,
___ ममता न धरे ताते निर्जरा को हेतु है । वह करत्ति मूढ करे पै मगन रूप,
अंध भयो ममतासों बंधफल लेतु है ॥ २२ ॥