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द्वितीय खण्ड/चौथी पुस्तक
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कुछ लोगों की ऐसी भी धारणा है कि चौथे, पाँचवें, छठे में ज्ञानचेतना नहीं होती। सातवें से होती है वह धारणा गलत है। प्रमाणशून्य है। नीचे की पंक्ति में इसी नियम को नास्ति से पुष्ट किया है कि किसी भी मिथ्यादृष्टि के किसी भी अवस्था में ज्ञान चेतना नहीं होती यह भी नियम है। मिथ्यादृष्टि का होना - ज्ञान चेतना का न होना तथा ज्ञानचेतना का न होना - मिध्यादृष्टि का होना दोनों ओर से व्याप्ति है। इसमें यह भूल होती है कि मिथ्यादृष्टि को ग्यारह अंग तक का ज्ञान तो हो जाता है पर ज्ञानचेतना नहीं होती। परलक्षी शास्त्र ज्ञान से या ज्ञानावरण के अधिक क्षयोपशम से ज्ञानचेतना का कोई सम्बन्ध नहीं है। सम्यग्दृष्टि मेण्डक के भी ज्ञानचेतना होती है। अत: ज्ञान के क्षयोपशम से इसका कोई सम्बंध नहीं है। दूसरे यह भूल होती है कि मिथ्यादृष्टि महाव्रती मुनि भी हो जाता है। निरतिचार व्यवहार चारित्र भी पालता है। नववें ग्रीवक तक भी जाता है पर ज्ञानचेतना नहीं होती। बहिरंग चारित्र से भी ज्ञान चेतना का कोई सम्बन्ध नहीं है। सम्यग्दृष्टि अविरत तिर्यंच तक के भी यह होती है। मिथ्यादृष्टि के इसका होना ही असम्भव है क्योंकि सम्यक्त्व के साथ ही इसका अविनाभाव है। फिर यह क्या है? जब जीव अपने ज्ञानोपयोग को पर से मोड़कर स्वभाव में जोड़ता है और
का, मोह और अनन्तानबंधी राग-देष छोडकर, ज्ञान रूप परिणमन होता है वह ज्ञानचेतना है। ऐसा भी नहीं कि ज्ञानियों को समाधि में होती हो, अन्य समय न होती हो किन्तु हर समय हर ज्ञानी के रहती ही है।
अस्ति चैकादशामा ज्ञाज नियादृशोक
नात्मोपलब्धिरस्यारित मिथ्याकर्मोदयात्परम् ॥ ९६७ ॥ अर्थ-यद्यपि मिथ्यादष्टि के ग्यारह अंगों तक का ज्ञान होता है फिर भी इसके शुद्ध आत्मोपलब्धि नहीं है क्योंकि मिथ्यात्व कर्म का उदय है।
भावार्थ-यहाँ निमित्त रूप से यह बताया है कि ज्ञानवरणीय के परलक्षी क्षयोपशम से इसका सम्बन्ध नहीं है किन्तु दर्शनमोहकर्म से इसका सम्बन्ध है। दर्शनमोह का अभाव होने पर तो नारकी और तियंच तक के हो जाती है और यदि दर्शनमोह का अभाव न हो तो ग्यारह अंग के पाठी और महाब्रती मुनि के भी नहीं होती। ज्ञान का उघाड़ ज्ञान चेतना नहीं है किन्तु जो चेतना आत्मा को विषय करती है वह ज्ञानचेतना है। इसकी दृष्टि बाहर शास्त्र व्रत इत्यादि पर रहती है। अन्तर की ओर नहीं जाती।
अवान्तर शंका जनूपलब्धिशब्देन ज्ञानं प्रत्यक्षमर्थतः ।
तत् किं ज्ञानावृतेः स्तीयकर्मणोऽन्यत्र तत्क्षतिः ॥ ९६८॥ शंका-शुद्धात्मोपलब्धि में उपलब्धि शब्द से ज्ञान वाच्य है। यह शब्दार्थ से प्रत्यक्ष अर्थात् स्पष्ट है। इसलिए ज्ञान चेतना का घातक उसका प्रतिपक्षी ज्ञानावरणीय कर्म मानना चाहिये मिथ्यात्व कर्म को नहीं किन्तु पहले पद्य में मिथ्यात्व के उदय को उसका घातक माना है तो क्या ज्ञानचेतना में ज्ञान के अपने प्रतिपक्षी ज्ञानघातक ज्ञानावरण कर्म के सिवाय कोई दूसरे कर्म द्वारा उस ज्ञान चेतना का घात होता है?
भावार्थ-शिष्य का यह कहना कि ज्ञान चेतना शब्द तोयह बताता है कि ज्ञानावरणीय से उसका सम्बन्ध है। जितना अधिक ज्ञान का क्षयोपशम हो उतनी अधिक ज्ञानचेतना होनी चाहिये। फिर आपने पहले सूत्र में दर्शनमोहनीय के साथ उसका अविनाभाव क्यों बतलाया है?
समाधान – ९६९ से १७१ तक सत्यं स्तातरणरन्योच्चैर्मूल हेतुर्यथोटयः ।
कर्मान्तरोदयापेक्षो जासिद्धः कार्यकृयथा || ९६९॥ अर्थ-ठीक है जैसे अपने-अपने घात में अपने-अपने आवरण का उदय वास्तव में मूल कारण है वैसी ही दूसरे कर्म के उदय की अपेक्षा भी कार्यकारी है यह भी असिद्ध नहीं है। वह इस प्रकार--