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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
को प्राप्त है तो मैं कहता हूं कि स्पष्ट और सत्रिकर्ष को प्राप्त तो विस्त्रसोपचय वर्गणा भी हैं वे क्यों कारण नहीं है? इसके उत्तर में उसे समझायेंगे कि आत्मा ने राग करके जिन कर्मों को बांध लिया था वे ही निमित्त पड़ेंगे क्योंकि बद्धसंज्ञा केवल उन्हीं की है और निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध उन्हीं के साथ है। जगत के अन्य द्रव्य या विस्वसोपचय न बंध रूप हैं और न उनके साथ निमित्तनैमित्तिक संबंध है। निमित्त नैमित्तिक संबंध समझाने के उद्देश्य से ही यह शंका कराई गई है।
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समाधान ८६८ से ८७९ तक
सत्यं बद्धमबद्धं स्याच्चिद्दव्यं चाय मूर्तिमत् । स्वीयसम्बन्धिभिर्बद्धमबद्ध परबन्धिभिः ॥ ८६८ ॥
अर्थ- तुम्हारी शंका ठीक है। चेतन द्रव्य और मूर्तिक द्रव्य बद्ध भी हैं और अबद्ध भी है। अपने सम्बन्धियों से बद्ध हैं और परबन्धियों से अबद्ध हैं (जिनके साथ उसका निमित्त नैमित्तिक संबंध हैं वे ही उसके सम्बन्धी हैं और उन्हीं से वह बद्ध है । शेषों से अबद्ध है )।
भावार्थ - भाई यह तो ठीक है कि प्रत्येक द्रव्य स्वतन्त्र है। उसका परिणमन भी स्वतन्त्र है । वह कार्य भी अपने स्वचतुष्टय में करता है तथा पर के क्षेत्र को छूता भी नहीं है। इतना होने पर भी कुछ विशेषता है जो कर्म का उदय जीव के विकार में निमित्त पड़ता है। वह यह है कि यह संसारी जीव अनादिकाल से कुछ ज्ञानावरणादि कर्म परमाणुओं से बंधा हुआ है। जो जीव जिन कर्मों से बंधा है उन दोनों की तो परस्पर बद्धसंज्ञा है और शेष सब द्रव्यों की तथा विस्वसोपचय की उसके लिये अबद्ध संज्ञा । जिनके साथ वह बंधा है उनके साथ उसका कार्यकारण भाव है। शेष के साथ नहीं है । [ कार्यकारण का अर्थ निमित्तनैमित्तिक है। और कुछ नहीं ] । तथा
बद्धाबद्धत्वयोरस्ति विशेषः पारमार्थिकः 1
तयोर्जात्यन्तरत्वेऽपि हेतुमद्धेतुशक्तितः ॥ ८६९ ॥
अर्थ- बद्धों और अबद्धों में वास्तविक भेद है। उन दोनों (बद्धों) में भिन्न जातिपना होने पर भी कार्य कारण शक्ति से भेद है।
भावार्थ- जीव और उसके साथ बंधे हुये ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्म ये दोनों परस्पर बद्ध हैं। इनके लिये शेष सब पदार्थ अबद्ध हैं। यद्यपि जीव चेतन है कर्म जड़ है फिर भी उस जीव में और उन कर्मों में परस्पर कार्य कारण शक्ति है। कार्य कारण शक्ति का भाव यह है कि कर्म का उदय निमित्त कारण और जीव का भाव कार्य । यह कार्य कारण भाव परस्पर बद्धों में ही है। अबद्धों में नहीं है (कार्य-कारण और निमित्तनैमित्तिक का एक ही अर्थ है ) । बद्धः स्याद्बद्धयोर्भावः स्यादबद्धोऽप्यबद्धयोः । सानुकूलतया बन्धो न बन्धः प्रतिकूलयोः ॥ ८७० ॥ अर्थ-बद्धों में बद्धभाव होता है और अबद्धों में अबद्ध भाव होता है । सानुकूलता से बन्ध है । प्रतिकूलों में बन्ध नहीं है।
भावार्थ- बद्धों में बद्धभाव होता है इसका अर्थ यह है कि जो जीव और कर्म परस्पर बंधे हैं उनमें ही परस्पर उपर्युक्त बतलाया हुआ कार्य कारण भाव है। अबद्धों में अबद्ध भाव होता है का अर्थ यह है कि अबद्धों का परस्पर कार्य कारण सम्बन्ध नहीं है । सानुकूलता से बंध होता है का भाव यह है कि जिनका परस्पर कार्य कारण सम्बन्ध है उनमें ही बंध होता है । प्रतिकूलों का बन्ध नहीं होता का भाव यह है कि जिनका परस्पर कार्य कारण सम्बन्ध नहीं है उनमें बन्ध नहीं होता है।
अर्थतरित्रविधो बन्धो वाच्यं तल्लक्षणं त्रयम् ।
प्रत्येकं तद्द्वयं यावत् तृतीयस्तूच्यतेऽधुना ॥ ८७१ ॥
अर्ध - पदार्थ रूप से तीन प्रकार का बन्ध है। उन तीनों का लक्षण तीन प्रकार से कहने योग्य है। पहले दो तो भिन्नभिन्न द्रव्य में पहले श्लोक नं. ८१५ में ) कहे गये हैं। तीसरा (उभय बन्ध ) अब कहा जाता है ( पूर्व नं. ८१६ का भावार्थ भी देखिये) ।