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द्वितीय खण्ड/चौथी पुस्तक
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अर्थ-किन्हीं के द्वारा मोह से ऐसी कल्पना की जाती है कि ये नव पद कथन करने योग्य नहीं हैं क्योंकि ये ( सर्वथा) हेय हैं और उनसे सर्वथा भिन्न शुद्ध है।
भावार्थ-(१) आचार्य महाराज ने जो नौ पदार्थों को और शुद्ध तत्त्व को कथंचित् भित्र कहा, शिष्य ने उनको सर्वथा प्रदेश भेद से ही भिन्न समझा लिया (२) दूसरी भूल उसने यह की कि आचार्य महाराज ने दृष्टि की अपेक्षा हेय कहा था। ज्ञान के ज्ञेय की अपेक्षा नहीं उसने सर्वथा हेय समझ लिया और इन दो भूलों के आधार पर वह कहता है कि वे नौ पद सर्वथा भिन्न हैं तथा सर्वथा हेय हैं। उनको कह कर क्या करोगे? अर्थात उसने नौ पद में फिर अवाच्यता सिद्ध की।
तदसत् सर्वतस्त्यागः स्यादसिद्धः प्रमाणतः ।
तथा तेभ्योऽतिरिक्तस्य शुद्धस्यानुपलब्धितः ॥ ५३॥ अर्थ-यह ठीक नहीं है। इनका सर्वथा त्याग प्रमाण से असिद्ध है क्योंकि उनसे सर्वथा भिन्न शुद्ध की अनुपलब्धि
भावार्थ-आचार्य महाराज उत्तर देते हैं कि उनका प्रदेश भेद नहीं है जो सर्वथा त्याग हो सके और शुद्ध का भी उनसे भिन्न प्रदेश नहीं है जो वह ग्रहण किया जाय। वस्तु एक ही है केवल मुख्य गौण की बात है।
लावश्यं वाच्यता सिद्धयेत् सर्वतो हेयवस्तुनि ।।
जांधाविष्ट र प्रशासनातो साजा ९४४ ॥ अर्थ-दूसरी बात यह है कि सर्वथा हेय वस्तु में तो अवश्य वाच्यता सिद्ध नहीं होती किन्तु ये नव पदार्थ सर्वथा हेय नहीं हैं। जिसने कभी अन्धकार में प्रवेश नहीं किया उसको प्रकाश का अनुभव लेशमात्र भी नहीं हो सकता। उसी प्रकार जिसको नौ तत्त्व का ज्ञान नहीं है। उसको शुद्ध आत्मा का अनुभव नहीं हो सकता क्योंकि वह इन नौ में ही तो पाया जाता है।
भावार्थ-आचार्य महाराज उत्तर देते हैं कि सर्वथा हेय नहीं हैं। सम्यग्दर्शन की अपेक्षा हेय हैं। ज्ञान के ज्ञेय हैं। जानने योग्य हैं क्योंकि नौ तत्त्वों के ज्ञान बिना शुद्ध तत्व का किसी को भान नहीं हो सकता ऐसा अविनाभाव है। और जाने बिना शद्ध का श्रद्धान गधे के सींगवत् है। इसी बात में दृष्टांत भी देते हैं कि जिसको अन्धकार का ज्ञान नहीं, उसे प्रकाश का ज्ञान तीन काल में नहीं हो सकता। अतः ये तत्व अवश्य जानने योग्य हैं अतः कथन करने योग्य भी अवश्य हैं। इस प्रकार दूसरी बार गुरुदेव ने उनमें वाच्यता सिद्ध की।
९४२ से ९४४ तक का सार- सर्वथा हेय पदार्थ के कहने से अवश्य कोई भी प्रयोजन नहीं सरता । जो जीवादिक नौ पदार्थ सर्वथा हेय होते तो उनमें अवश्य वाच्यता (कथनयोग्यपना) सिद्ध न होता, परन्तु वे सर्वथा हेय नहीं हैं पर 'भावसापेक्ष अनुपादेय' हैं अर्थात् शुद्धता से विरुद्ध जीव की अशुद्ध पर्याय रूप जीवादिक नौ पदार्थ हैं इसलिए जैसे अन्धकार बिना प्रकाश का अनुभव नहीं होता है उसी प्रकार अशुद्धता की अपेक्षा बिना शुद्धता की सिद्धि भी नहीं हो सकती है। इसलिये जीवादिक नौ पदार्थों में वाच्यता अवश्य सिद्ध होती है। सारांश यह है कि जैसे प्रकाश का अनुभव अंधकार के अनुभव की अपेक्षा रखता है उसी प्रकार शुद्धात्म का अनुभव नव तत्त्वरूप अशुद्ध आत्मा की दशा के ज्ञान की अपेक्षा रखता है। इसलिए नौ पदार्थ में सर्वधा हेयता नहीं है। इन नौ पदार्थों को त्यागने योग्य कहा है और शुद्ध आत्मा उपादेय कहा है। अब जो ये नौ पदार्थ सर्वथा हेय हैं यह मानने में आवे तो उसका आश्रय छोड़कर अर्थात् उनका अनादर करके आत्मा के चैकालिक शुद्धस्वरूप का आश्रय-आदर करने का उपदेश किस प्रकार बन सकेगा? जो मनुष्य अन्धकार में ही न होवे उसको प्रकाश में आने को नहीं कहा जा सकता, उसी प्रकार जो अशुद्ध नौ पदार्थों के आश्रय रूप अज्ञान अंधकार में जीव अनादि काल से न होवे तो जीव को उन नौ पदार्थों में रहने वाले सामान्य शुद्ध जीव रूप प्रकाश का आश्रय लेने का उपदेश नहीं दिया जा सकता। इसलिये ये नौ पदार्थ सर्वथा हेय नहीं हैं किन्तु ज्ञान करने योग्य है। इसलिये वे अवश्य कहने योग्य हैं।
शंका-अब शिष्य कहता है कि अच्छा यह तो आप भी मानते हैं कि ये सम्यक्त्व का विषय नहीं है। अतः अकिंचिकर हैं [जो वस्तु कुछ काम न आये । अप्रयोजनभूत हो उसे अकिंचित्कर कहते हैं ] अकिंचित्कर वस्तु हो