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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
भावार्थ-(१) आत्मा का कर्मों के साथ जो बध होता है वह अशुद्ध अवस्था में होता है। यदि कर्मबंध से पहले आत्मा को शुद्ध माना जाय तो बन्ध नहीं हो सकता(२) इसके उत्तर में यदि कोई हटपूर्वक कहे कि नहीं शुद्ध के भी बन्ध हो जाता है तो उत्तर में कहते हैं कि मोक्ष किस प्रकार होगा?फिर तो जीव सदा संसारी ही बना रहेगा क्योंकि जीव शुद्ध भाव करता है और शुद्ध भावों से कर्म नहीं बचता तथा पहला खिर जाता है तो मोक्ष हो जाती है। यदि शुद्ध के भी बंध होने लगे तो कभी फिर जीव का मोक्ष हो ही नहीं सकता। धर्म का पुरुषार्थ ही व्यर्थ हो गया। इससे सिद्ध होता है कि जीव अनादि से कर्म से बद्ध है और अशुद्ध है। अब कहते हैं कि पुद्गल की भी यही दशा है वह भी अनादि से अशुद्ध है।
अथ चेत्पुद्गलः शुद्धः सर्वतः प्रागनादितः ।
हेतोर्बिना यथा झार्ज तथा क्रोधादिरात्मनः ॥ ८०६ || अर्थ-और यदि पुदगल पहले से ही अनादि से सर्वथा शद्ध होवे तो जैसे बिना कारण ज्ञान आत्मा का स्वभाव है वैसे ही क्रोधादि विभाव भाव भी आत्मा के स्वभाव ठहरेंगे।
भावार्थ-पुद्गल की कर्म रूप अशुद्ध पर्याय के निमित्त से ही आत्मा में क्रोधादिक होते हैं। ऐसा मानने से तो कोधादिक आत्मा के स्वभाव नहीं ठहरते हैं किन्तु विभाव ठहरते हैं। परन्तु पुद्गल को अनादि से सर्वथा शुद्ध मानने पर तो आत्मा में विकार के लिये निमित्त रूप कोई पदार्थ नहीं रहता। ऐसी अवस्था में कोधादिक का हेतु सर्वथा आत्मा ही पड़ेगा और क्रोध, मान, माया, लोभ आत्मा के कारण रहत ऐसे स्वभाव समझे जावेग से जान दर्शन आदि। इस पर शिष्य कहता है कि समझे जाने दो हमें क्या है ? तो उत्तर देते हैं कि सारा वस्तु स्वभाव ही बिगड़ जायेगा वह इस प्रकार:
एवं बन्धस्य नित्यत्वं हेतोः सद्भावलोऽथवा |
द्रव्याभावो गुणाभानो कोधादीनामदर्शनात् ।। ८०७॥ अर्थ-इस प्रकार क्रोधादि आत्मा का स्वभाव होने पर बन्ध के नित्यपना ठहरता है क्योंकि बन्ध के कारण क्रोधादिक का सद्भाव सदा बना रहेगा यह दोष आता है। दूसरा दोष यह आता है कि कोधादिकका तो अभाव देखा जाता है और क्रोधादिक तो आत्मा के स्वभाव अर्थात् गुण थे। इस प्रकार गुण का अभाव ठहरा और गुणों का समूह द्रव्य है । गुणों का अभाव होने पर द्रव्य का अभाव स्वतः प्राप्त हुआ इस प्रकार सब खेल ही बिगड़ जाता है।
तत्सिद्धः सिद्धसम्बन्धो जीवकर्मोभयोमिथः ।
सादिसिद्धेरसिद्धत्वात् असत्संदृष्टितश्च तत् ॥ ८०८ ॥ अर्थ-इसलिये जीव कर्म दोनों का परस्पर में अनादि सिद्ध सम्बन्ध सिद्ध हो गया क्योंकि सादि सम्बन्ध ( किसी समय विशेष से होने वाला सम्बन्ध ) सिद्ध न हो सका और उस सादि सम्बन्ध को सिद्ध करने वाला कोई दृष्टांत भी नहीं मिलता है। अब वह अनादि सिद्ध सम्बन्ध परिपाटी से किस प्रकार चला आ रहा है यह खोलकर स्पष्ट रूप से .. समझाते हैं।
जीतस्याशुद्धरागाटिभावानां कर्म कारण ।
कर्मणस्तस्य रागादिभावा: प्रत्युपकारितत् ।। ८०९ ॥ ___ अर्थ-जीव के अशुद्ध रागादि भावों को पूर्वबद्ध कर्म का उदय निमित्त मात्र कारण है और आगामी बंधने वाले कर्म को उस आत्मा के रागादि भाव निमित्त मात्र कारण हैं। परस्पर उपकार करने वालों की तरह। इसी को स्वयं स्पष्ट करते हैं:
पूर्वकर्मोदयादातो भावात्प्रत्यवासंचयः ।
तस्य पाकात्पुनर्भावो भावाद्वन्धः पुनस्ततः ॥ ८१०।। अर्थ-पूर्व कर्म के उदय से राग भाव होता है राग भाव से नया कर्म संचय होता है। उसके उदय से फिर राग भाव । होता है। राग भाव से फिर बन्ध होता है। इसी प्रकार पुनः पुनः ।
एवं सन्तानतोऽनाटिः सम्बन्धो जीतकर्मणोः । संसार: स च दुर्मोच्यो बिना सम्यग्दृगादिना ॥ ८११॥