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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
भावार्थ - तत्व में अभेद बुद्धि का होना द्रव्यार्थिक नय है और उसमें भेद बुद्धि का होना पर्यायार्थिक नय है। अनिर्वचनीय उसी को कहते हैं जिसका"न इति"(ऐसा नहीं है)ऐसा लक्षण कहकर आये हैं अर्थात् वह अपना स्वरूप शब्द में नहीं बतला सकता। केवल व्यवहार का निषेध कर अखण्डता का संकेत कर देता है। इस दृष्टि से द्रव्य का लक्षण श्लोक नं.८ में कहा है और ७० तक उसका निरूपण किया है और पर्यायार्थिक नय की दृष्टि से द्रव्य का लक्षण ७२,७३, ७६ में कहा है और ७१ से २६० तक उसका स्पष्टीकरण किया है।
यटिटमनिर्वचनीय गुणपर्ययवत्तदेव नास्त्यन्यत् ।
गुणपर्ययवद्यदिदं तदेव तत्वं तथा प्रमाणमिति ॥ ७५८ ।। अर्थ - जो द्रव्य अनिर्वचनीय ( अखण्ड) है वही द्रव्य, गुण, पर्यायवाला है दूसरा नहीं है तथा जो द्रव्य गुणपर्याय वाला है वही तत्त्व ( अनिर्वचनीय-अखण्ड) है। इस प्रकार सामान्य विशेष दोनों का जोड़ रूप-यगपत विषय करने वाला प्रमाण है।
भावार्थ - वस्तु सामान्यविशेषात्मक है। सामान्य वस्तु( अखंड)द्रव्यार्थिक नयका विषय है। विशेष वस्त(खंड) पर्यायार्थिक नय का विषय है तथा सामान्यविशेषात्मक-उभयात्मक वस्तु प्रमाण का विषय है। प्रमाण एक ही समय में अविरुद्धरीति से दोनों धर्मों को विषय करता है। जो ऐसा है वहीं ऐसा है यह इसके बोलने की रीति है। श्लोक ७४७४८ इकट्टे हैं। ७४७ की पहली पंक्ति में द्रव्यार्थिक नय का, दूसरी पंक्ति में पर्यायार्थिक नय का और ७४८ में प्रमाण का विषय है। प्रमाण की दृष्टि से द्रव्य का लक्षण श्लोक नं. २६१ की प्रथम पंक्ति में कहा है। सार - व्यवहार प्रतिपादक है , निश्चय 'नेति-निषेधक है, प्रमाण उभयात्मक है।
यद् द्रव्यं तन्न गुणो योऽपि गुणस्तन्न द्रव्यमिति चार्थात् ।
पर्यायोऽपि यथा स्यात् ऋजुनयपक्षः स्वपक्षमात्रत्वात् ॥ ७४९ ॥ अर्थ - पदार्थ रूप से जो द्रव्य है, वह गुण नहीं है। जो गुण है, वह द्रव्य नहीं है। उसी प्रकार पर्याय भी पर्याय ही है द्रव्य,गुण नहीं है। यह पर्यायार्थिक नय का पक्ष है क्योंकि यह द्रव्य,गुण, पर्यायों को भिन्न-भिन्न मानकर केवल पर्याय-भेद-अंश रूप अपने विषय को कहने वाली है ( यहाँ ऋजुसूत्र नय का अर्थ व्यवहार नय है। पद्य बनाने के कारण पर्यायवाची शब्द का प्रयोग कर लिया है। मोक्ष शास्त्र वाला अर्थ नहीं है)।
यटिदं द्रव्यं स गुणो योऽपि गुणो द्रव्यमेतदेकार्थात् ।
तदर्भयपक्षदक्षो विवक्षितः प्रमाणपक्षोऽयम ॥ ७५० ।। अर्थ- क्योंकि द्रव्य, गुण का एक अर्थ ( पदार्थ-अभेदवस्तु)अखण्ड है, इसलिये जो द्रव्य है, वही गुण है। जो गुण है, वही द्रव्य है,यह द्रव्यार्थिक नय का पक्ष है तथा भेद-अभेद इन दोनों पक्षों को विषय करने में समर्थ विवक्षित जो पक्ष है यह प्रमाण का पक्ष है। जैसे जो द्रव्य,गुणपर्यायवाला है। वही द्रव्य, उत्पाद, व्यय, धौव्य युक्त है तथा वही द्रव्य अनिर्वचनीय ( अखण्ड) है। ___ भावार्थ – ७४९-५० - जो द्रव्य है, वह गुण नहीं है तथा जो गुण है, वह द्रव्य नहीं है परन्तु गुण-गुण ही है तथा द्रव्य-द्रव्य ही है। इसी प्रकार जो पर्याय है, वह पर्याय ही है, यह द्रव्य गुण नहीं है। यह पक्ष (विषय ) अर्थात् द्रव्यगुण-पर्याय को भिन्न-भिन्न मानकर केवल पर्याय-भेद-अंश मात्र को विषय करना यह व्यवहार नय का विषय है। तथा जो द्रव्य है, वही गुण है और जो गुण है , वही द्रव्य है कारण कि 'गुणसमुदायो द्रव्यं' इस सिद्धान्त में सम्पूर्ण गुणों को ही द्रव्य कहा है। इसलिये गुण और द्रव्य परस्पर भिन्न नहीं हैं परन्तु उक्त प्रकार से एक ही अर्थ वाला है। इसलिये गुण और द्रव्य को एक अखण्ड कहना यह द्रव्यार्धिक नय का पक्ष है - विषय है तथा इन दोनों नयों के पक्ष को जोड़ रूप युगपत विषय करना यह प्रमाण का विषय है। श्लोक ७४१-५० इकट्ठे हैं। ७४९ में पर्यायार्थिक नय का विषय, ७५० की प्रथम पंक्ति में द्रव्यार्थिक नय का विषय और दूसरी पंक्ति में प्रमाण का विषय है। ८ से २६१ तक जो वस्तु अधिकार में द्रव्य, गुण, पर्याय, उत्पाद, व्यय, धौव्य का निरूपण किया है। उस पर यहाँ श्लोक ७४७-४८-४९-५० द्वारा नय प्रमाण को घटित करके दिखलाया है। इसके विशेष स्पष्टीकरण के लिये परिशिष्ट पेज में दष्टि परिजान (१) को पुन: पढ़िये।