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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
प्रयोग करके जानने का है। बिना इस नयप्रमाण ज्ञान के जीव अपने को तथा पर को नहीं जान सकता और भेद विज्ञान की सिद्धि नहीं कर सकता।जीव पर प्रमाण को स्वयं लगा लेना तथा अन्य अनन्त नय भी इसी प्रकार लगा लेना।नित्यअनित्य, तत्-अतत् नय, एक-अनेक नय आदि स्वयं लगा लेना।
अब धर्म द्रव्य पर लगाते हैं (१) पहले शद्ध द्रव्यार्थिक नय से यह जानने की जरूरत है कि वह स्वतः सिद्ध एक अखण्ड सत् है। (२)फिर द्रव्यार्थिक नय से अखण्ड देश है और पर्यायार्थिक नय से असंख्यात् प्रदेशी है।(३)फिर अनन्त गुणों को विषय करने वाली अनन्त नय उसी नाम से (४)फिर विभाव परिणमन न होने के कारण असद्भुत का प्रयोग इसमें नहीं होगा। (५)फिर वह जीव पुद्गल को गमन सहायी है यह उसका गुण पर से उपचरित किया गया है इसलिये उपचरितसद्भूत किन्तु (६) गतिहेतुत्व स्वतः सिद्ध गुण है यह अनुपचरितसद्भूत (७)फिर गुण और गुणी भेद के कारण व्यवहार (८) फिर वह त्रिकाली स्वभाव को कायम रखता है यह नित्यनय। पर्याय में षट्गुणी स्वाभाविक हानि-वृद्धि करता है यह अनित्य नय (१) सामान्य विशेष रूप है यह अस्ति-नास्ति नय(१०) द्रव्य से वही-वही है तथा पर्याय से नया-नया यह तत्-अतत् नय(११) अखण्ड निरंश देश होने से एक, गुण भेद होने से अनेक इत्यादिक प्रकार से उसका स्वरूप जानने की आवश्यकता है। इसी प्रकार अधर्म, आकाश, काल पर स्वयं लगा लेना!
अब पुद्गल पर लगाकर दिखलाते हैं। (१) वह अखण्ड द्रव्य यह शुद्धद्रव्यार्थिक (२) एक अखण्ड देश यह निश्चय तथा ६ कोण यह व्यवहार (३) अनन्त गुण एक-एक गुण को विषय करने वाला एक-एक नय(४)विभाव परिणमन को बतलाने वाला असद्भूत व्यवहार (५) पर्याय पर से उपचरित के कारण उपचरित सद्भूत (६) गुण स्वतः सिद्ध सद्भूत (७) गुण-गुणी का भेद व्यवहार (८) स्वभाव के कारण नित्य, पर्याय के कारण अनित्य (१)अखण्ड निरंश देश के कारण एक, गुणपर्याय भेद के कारण अनेक इत्यादि प्रकार से जान लेना।
अब सार बात यह है कि वस्तु अनन्तधर्मात्मक है और उस पर लगने वाली अनन्तनय है। कहाँ तक कहें। आगम तो भाव पकड़ा देता है। नय तो वक्ता का अभिप्राय है। आप कहीं तक नय बनाते जायें। यदि भाव आपके अन्दर पदार्थ का ठीक झलक रहा है तो तीर निशाने पर बैठेगा। वरना सत्-असत् की अविशेषता बिना पागल के समान बकवास होगी। बस सूत्रकार का यही आशय है कि अनेक भाव युक्त जो प्रत्येक सत् है उस पर आप हमारी कही हुई या बिना कही हुई सब नय आगम के नियमानुसार लगा लेगा। नय प्रमाण का ज्ञान परम आवश्यक है। अध्यात्म के चक्रवर्ती श्री अमृतचन्द्र सूरि ने लिखा है कि जैनधर्म की यह तीक्ष्ण नय खड्ग शत्रओं के मस्तक को काटती हई पदार्थ की यथार्थ सिद्धि करती है और नय चक्र को चलाने में निपुण गुरुओं की कृपा से ही वह खड्ग चलाई जा सकती है। उसके लिए श्री सदगुरुदेव की शरण लें। यह बात और जान लेनी चाहिए कि मोक्षशास्त्र में बताई हई नयों से ग्रन्थकार का बिल्कुल आशय नहीं है क्योंकि वे आगम दृष्टि की नय है। छ: द्रव्यों के समुच्चय विवेचन पर लगती हैं। दूसरे ये भी जान लेना चाहिये कि यहाँ सब नय एक ही सत के चतुष्टय पर लगेंगी। दो द्रव्यों पर लगने वाली नय नहीं हैं किन्तु नयाभास हैं। उपर्युक्त सूत्र में नयाभासों का ग्रहण नहीं है।
श्लोक ७४६ से ७६८ तक का सार प्रकृति में द्रव्य, गुण, पर्याय का अवलम्बन लेकर पर्यायार्थिक, द्रव्यार्थिक नय और प्रमाण पक्ष को समझाने की योजना की गई है। इसी प्रकार एक-अनेक. अस्ति-नास्ति, नित्य-अनित्य और भाव-अभाव (तत्-अतत) इनकी अपेक्षा पर्यायार्थिक नय पक्ष, द्रव्यार्थिक नय पक्ष और प्रमाण पक्ष को बतलाया गया है। इस सब कथन का तात्पर्य यह है कि किसी एक धर्म द्वारा वस्तु का विवेचन करना पर्यायार्थिक नय है।'न तथा' इस द्वारा उसका निषेध करना द्रव्यार्थिक नय है और इन सब धर्मों का समुच्चय रूप से ग्रहण करना प्रमाण है। इस सम्पूर्ण ग्रन्थ। को व्यवहार नय और द्रव्यार्थिक नय को निश्चय नय कहा गया है। निश्चय दुष्टि अशेष विशेषों से हटाकर चित्त को एक सामान्य तत्व की ओर ले जाती है जो द्रव्यार्थिक नय का याच्य है। यह दृष्टि प्रधान है और स्वरूप सिद्धि के लिये परमावश्यक है। पर्याय दृष्टि अभूतार्थ दृष्टि है निश्चय दृष्टि भूतार्थ दृष्टि है। ज्ञान का विषय तो सब प्रमाण नय हैं किन्तु सम्यक्त्व का विषय एक निर्विकल्प शुद्ध द्रव्यार्थिक नय का विषय अखण्ड है जो तीनों काल एक रूप शुद्ध चेतन मात्र है। मोक्षमार्ग इसी के आधीन है। यह इस कथन का तात्पर्य है।
नय प्रमाण प्रयोग पद्धति समाप्त