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प्रथम खण्ड / तृतीय पुस्तक
शंका
ननु
चैवं नय युग्मं व्यस्तं नय एव न प्रमाणं स्यात् । तदिह समस्तं योगात् प्रमाणमिति केवलं न नयः ॥ ६७५ ॥
शंका - उपर्युक्त उत्तर सुनकर शिष्य कहता है कि इस कथन से तो यह अर्थ निकला कि दोनों ही नय जब भिन्नभिन्न प्रयुक्त किये जाते हैं तब वे नय ही हैं जैसे सत् नित्य है या सत् अनित्य है प्रमाण नहीं। और वे ही दोनों नय जब मिलाकर एक साथ प्रयोग में लाये जाते हैं जैसे सत् नित्यानित्य है तब वह केवल प्रमाण कहलाता है नय नहीं । क्या यह ठीक है।
भावार्थ - जिस प्रकार एक-एक पैसा भिन्न-भिन्न होता है और उनको मिलाकर एक रुपया हो जाता है। उसी प्रकार द्रव्य के प्रत्येक अवयव को एक-एक नय जानता है। यदि उन सब अवयवों के ज्ञान को मिलाकर इकट्ठा कर दिया जाय तो क्या प्रमाणज्ञान हो जायेगा ? ऐसा शिष्य पूछता है। उसके उत्तर में उसे समझाते हैं कि ऐसा नहीं है क्योंकि नय प्रत्येक अंग को स्वतन्त्र विरोध रूप से जानता है जैसे स्वभाव को जानने वाली नय द्रव्य को नित्य ही ज्ञान कराती है। परिणाम को जानने वाली नय द्रव्य को अनित्य ही ज्ञान कराती है। प्रदेशों की जानने वाली नय एक-एक प्रदेश की भिन्नता का ज्ञान कराती है। इस प्रकार अनन्त धर्मों का ज्ञान अनन्त नय कराते हैं पर वे सब मिलकर भी प्रमाण ज्ञान नहीं हो सकता क्योंकि प्रमाण ज्ञान की दृष्टि में अवयव भेद ही नहीं है। वह तो ज्ञान ही एक भिन्न जाति का है। वह तो सम्पूर्ण वस्तु को सब धर्मो की मैत्रीपूर्वक एकदम इकड्डा जान लेता है। नयज्ञान चीज ही और है। प्रमाण ज्ञान चीज ही और है। दोनों के नाम, लक्षण, फल इत्यादि सब भिन्न-भिन्न हैं। इस प्रकार अब उसे समझाते हैं
समाधान ६७५ से ६८२ तक
नन्न यतो नययोगादतिरिक्तरसान्तरं प्रमाणमिदम् ।
लक्षणविषयोदाहृतिहेतुफलाख्यादिभेदभिन्नत्वात्
॥ ६७५ ॥
अर्थ - ऐसा नहीं है क्योंकि नयों के मिलने से यह प्रमाण ज्ञान भिन्न जाति का ज्ञान है। लक्षण', , विषय, उदाहरण', हेतु, फल', नाम, भेद आदिक से प्रमाण में नयों से भेद की भिन्नता है। (नयों के लक्षण आदि पहले कह ही आये हैं। प्रमाण के अब नीचे क्रमशः दिखलाते हैं। )
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प्रमाण का ( १ ) लक्षण (२) विषय ( ३ ) उदाहरण तत्रोक्तं लक्षणमिह सर्वस्वग्राहकं प्रमाणमिति ।
विषयो वस्तुसमस्तं निरंशदेशादिभूरुदाहरणम् ॥ ६७६ ॥
अर्थ ऊपर कहे हुवों में से प्रमाण का लक्षण ' सब अंशों को ग्रहण करना' है। प्रमाण का विषय समस्त वस्तु है। प्रमाण का उदाहरण भेद रहित देशादियुक्त पृथ्वी है।
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प्रमाण का ( ४ ) हेतु
हेतुस्तत्त्वबुभुत्सा संदिग्धस्याथवा च बालस्य ।
सार्थमनेकं द्रव्यं हस्तामलकवदवे तुकामस्य ॥ ६७७ 11.
अर्थ परस्पर विरोधी अनेक धर्मविशिष्ट द्रव्य को हाथ में रखे हुये आमले के समान भले प्रकार से जानने की इच्छा रखने वाले संदिग्ध अथवा अज्ञात पुरुष के जानने की इच्छा का होना प्रमाण की प्रवृत्ति में कारण है।
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प्रमाण का ( ५ ) फल (६) नाम ( ७ ) भेद
फलमस्यानुभवः स्यात्समक्षमिव सर्ववस्तुजातस्य ।
आख्या प्रमाणामिति किल भेदः प्रत्यक्षमथ परोक्षं च ॥ ६७८ ॥
अर्थ – सम्पूर्ण वस्तु मात्र का प्रत्यक्ष के समान अनुभव होना ही प्रमाण का फल । प्रमाण का नाम प्रमाण है। प्रत्यक्ष और परोक्ष उसके दो भेद हैं।