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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
यदि पुनरेव परहिता दृत्यते तन्तु ! अपि संगृह्य समन्तात् पटोऽयमिति दृश्यते सद्भिः ॥ ३०५ ॥
अर्थ यदि वही पट पटबुद्धि से देखा जाता है तो वह पद ही प्रतीत होता है, उस समय वह तन्तु रूप नहीं दीखता किन्तु प्रमाण से दोनों ही विवक्षाओं का संग्रह करके पटत्व और तन्तुओं से युक्त संकलनात्मक सामान्यविशेषात्मक यह पट है ऐसा विद्वानों के द्वारा देखा जाता है।
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इत्यादिकाश्च बहवो विद्यन्ते पाक्षिका हि दृष्टान्ताः ।
तेषामुभयाङ्गत्वान्नहि कोऽपि कदा विपक्षः स्यात् ॥ ३०६ ॥ अर्थ- पट की तरह और भी अनेक ऐसे दृष्टान्त हैं जो कि हमारे पक्ष को पुष्ट करते हैं। वे सभी दृष्टान्त उभयपने को सिद्ध करते हैं इसलिये उनमें से कोई भी दृष्टान्त कभी हमारा ( जैनदर्शन का ) विपक्ष नहीं होने पाता है।
अयमर्थो विधिरेव हि युक्तिवशात्स्यात्स्वयं निषेधात्मा ।
अपि च निषेधस्तद्वद्विधिरूपः स्यात्स्वयं हि युक्तिवशात् ॥ ३०७ ॥
अर्थ - ऊपर कहे हुये कथन का खुलासा अर्थ यह है कि विधि ही युक्ति के वश से स्वयं निषेधरूप हो जाती है और जो निषेध है वह भी युक्ति के वश से स्वयं विधिरूप हो जाता है।
भावार्थ जिस समय पदार्थ सामान्य रीति से विवक्षित किया जाता है। उस समय वह समग्र पदार्थ सामान्य रूप ही प्रतीत होता है। ऐसा नहीं है कि उस समय पदार्थ का कोई अंश विशेष रूप भी प्रतीत होता हो। इसी प्रकार विशेष विवक्षा के समय समग्र पदार्थ विशेष रूप ही प्रतीत होता है। जो दर्शनकार सामान्य और विशेष को पदार्थ के जुदेजुदे अंश मानते हैं उनका इस कथन से खण्डन हो जाता है क्योंकि पदार्थ एक समय में दो रूप से विवक्षित नहीं हो सकता और जिस समय जिस रूप से विवक्षित किया जाता है, वह उस समय उसी रूप से प्रतीत होता है। स्याद्वाद का जितना भी स्वरूप है सब विवक्षाधीन है। इसलिये जो नय दृष्टि को नहीं समझते हैं, वे स्याद्वाद तक नहीं पहुँच पाते हैं।
उपसंहार
इति विन्दन्निह तस्वं जैनः स्यात्क्रोऽपि तत्त्ववेदीति । अर्थात्स्यात्स्याद्वादी तदपरथा नाम सिंहमाणवकः ॥ ३०८ ॥
अर्थ ऊपर कही हुई रीति के अनुसार जो कोई तत्त्व का ज्ञाता तत्त्व को जानता है, वही जैन है और वही वास्तविक स्याद्वादी है। यदि ऊपर कही हुई रीति से तत्त्व का स्वरूप नहीं जानता है तो वह स्याद्वादी नहीं है किन्तु उसका नाम सिंहमाणवक (मूर्ख - अज्ञानी- पशु ) है।
२८९ से ३०८ तक का सार
नं. २८९ से ३०८ तक स्वतन्त्र अस्ति और स्वतन्त्र नास्ति अर्थात् सामान्य के प्रदेश भिन्न और विशेष के प्रदेश भिन्न दोनों निरपेक्ष का खण्डन किया है और अस्ति नास्ति अर्थात् सामान्य विशेष की परस्पर सापेक्षता का समर्थन किया है। यही इस कथन का रहस्य है।
नोट - इस प्रकार 'वस्तु की अनेकान्तात्मक स्थिति' नामा महा अधिकार में अस्ति (सत्) नास्ति (असत्) ' युगल का वर्णन करने वाला प्रथम अन्तराधिकार समाप्त हुआ। सद्गुरु देव की जय ।
'अस्ति नास्ति' पर नय प्रमाण लगाने की पद्धति ७५६ से ७५९ तक *
अपि चारित सामान्यमात्रादथवा विशेषमात्रत्वात् ।
अविवक्षितो विपक्षो यावदनन्यः स तावदस्ति नयः ॥ ७५६ ॥
अर्थ - वस्तु सामान्य मात्र से है अथवा विशेष मात्र से है। उस में जब तक विपक्ष अर्थात् नास्ति पक्ष अविवक्षित (गौण ) रहता है तब तक वह एक 'अस्ति नय' है (अनन्य शब्द का अर्थ एक है )।
* ये श्लोक इसी ग्रन्थ के प्रथम भाग के अन्त के हैं। भावार्थ के लिए अन्त में 'दृष्टि परिज्ञान' देखिये ।