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प्रथम खण्ड/द्वितीय पुस्तक
क वह अशेष विशेषों
समाधान २९९ से ३०८ तक तन्ज यतः सदिति स्यादद्वैतं द्वैतभावभागपि च ।
तत्र विधौ विधिमानं तदिह निषेधे निषेधमान स्यात ॥ २९९ ॥ अर्थ - यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि सत् यह द्वैत रूप होकर भी कथंचित अद्वैत रूप ही है इसलिये विधि के विवक्षित होने पर वह सत् विधिमात्र है, और वही सत निषेध के विवक्षित होने पर निषेध मात्र है।
भावार्थ - पदार्थ सामान्यविशेषात्मक अशा विभिनिरोधात्मक है जिस समय जो भाव विवक्षित किया जाता है, उस समय वह पदार्थ उसी भाव स्वरूप है।
न हि किंचितिधिरूपं किञ्चित्तच्छेशनो निषेधांशम् ।
आरसां साधनमरिमन्नाम द्वैतं न निर्विशेषत्वात् ॥ ३०० ।। अर्थ- ऐसा नहीं है कि द्रव्य का कुछ भाग तो विधि रूप हो और कुछ भाग निषेध रूप हो क्योंकि ऐसे सत् की सिद्धि में साधन का मिलना तो दर रहा, उसमें द्वैत की कल्पना भी नहीं की जा सकती है क्योंकि वह अशष से रहित माना गया है।
भावार्थ - वृक्ष में फल, पत्तों की तरह एक ही सत् में कुछ अंश विधि रूप हों और उससे अविशिष्ट कुछ अंश निषेध रूप हों, ऐसा नहीं है क्योंकि निरपेक्ष विधि रूप तथा निषेध रूप सत् के सिद्ध करने को हेतु के मिलने की तो बात ही क्या है वास्तव में सामान्य विशेष में द्वैतभाव भी नहीं है। केवल विवक्षावश द्वैत प्रतीत होता है।
न पुनर्दव्यान्सरवत्संज्ञा भेदोप्यताधितो भवति ।
तत्र विधौ विधिमानाच्छेषविशेषादिलक्षणाभावात् ॥३०१ ।। अर्थ - ऐसा भी नहीं है कि द्रव्यान्तर ( घट-पट या चेतन-अचेतन) की तरह विधि, निषेध दोनों ही सर्वथा भिन्न हों।सर्वथा नाम भेद भी इनमें बाधित ही है क्योंकि विधि को कहने से वस्तु विधि मात्र ही हो जाती है, बाकी के विशेष लक्षणों का उसमें अभाव हो जाता है।
अपि च निखिटले सति जति वरतवं विधेरभावत्वात ।
उभयात्मकं यदि वलु प्रकृतं न कर्थ प्रमीयेत ॥३०२ ॥ अर्थ - उसी प्रकार सर्वथा निषेध को कहने से उसमें विधि का अभाव हो जाता है। इन दोनों के सर्वथा भेद में वस्तु की वस्तुता ही चली जाती है। यदि वस्तु को उभयात्मक माना जाय तो प्रकृत की सिद्धि हो जाती है अर्थात् विधि निषेध दोनों परस्पर सापेक्ष सिद्ध हो जाते हैं।
तस्मादविधिरूपं वा लिर्टिष्टं सनिषेधरूपं वा ।
संहत्यान्यतरत्वादन्यतरे सन्जिरूप्यते तदिह 11 ३०३ ॥ अर्थ - जब यह बात सिद्ध हो चुकी कि पदार्थ विधिनिषेधात्मक है तब वह कभी विधि रूप कहा जाता है और कभी निषेध रूप कहा जाता है क्योंकि परस्पर सापेक्ष होने से इनका एक-दूसरे में अन्तर्भाव हो जाता है।
भावार्थ - इस प्रकार वस्तु को अन्वयव्यतिरेकात्मक सिद्ध हो जाने से जिस समय वह वस्तु विधि रूप कही जाती है उस समय निषेध रूपविशेष धर्म गौण रूप से उसी विधि में गर्भित हो जाता है ऐसा समझना चाहिये तथा जिस समय वहीं वस्तु निषेध रूप से विवक्षित होती है उस समय विधि रूप सामान्य भी उसी निषेध में गौण रूप से गर्भित हो जाता है ऐसा समझना चाहिये। क्योंकि अस्ति-नास्ति सर्वथा पृथक नहीं हैं किन्तु परस्पर सापेक्ष हैं। इसलिये विवक्षित की मुख्यता में अविवक्षित गौण रूप से गर्भित रहता है।
दृष्टांतोऽन पटत्वं यातनिर्दिष्टमेव तन्तुतया ।
तावन्न पटो जियमाद् दृश्यन्ते तन्ततस्तथाध्यक्षात् ॥ ३०४॥ अर्थ - दृष्टांत के लिये पट है। जिस समय पट तन्तु की दृष्टि से देखा जाता है उस समय वह पट प्रतीत नहीं होता किन्तु तन्तु ही दृष्टिगत होते हैं।