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प्रथम खण्ड/द्वितीय पुस्तक
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नोट - यहाँ तक अस्ति-नास्ति युगल का वर्णन किया। अब यह समझाते हैं कि ये दोनों धर्म सापेक्ष तो सम्यक् हैं - सच्चे हैं, निरपेक्ष मिथ्या हैं। बहुत से विद्वान् भी इनको निरपेक्ष (दो द्रव्यों पर) लगा देते हैं। यह भूल नहीं होनी चाहिये। ठीक इसी बात का निरूपण पहले भी नं. १५ से २२ तक हो चुका है। आप उसे भी पढ़ लें तो अधिक लाभ होगा।
(१) निरपेक्ष अस्ति-नास्ति का खण्डन २८१ से ३०८ तक (२) सापेक्ष अस्ति-नास्ति का समर्थन २८९ से ३०८ तक
शंका २८९-२९० ननु चान्यलरेण कृतं किमथ प्रायः प्रयासभारेण ।
अपि गौरवप्रसंगादनुपादेयाध वाग्विलासितत्वात ॥ २८९॥ शंका- अस्ति-नास्ति दोनों में से एक ही कहना चाहिये, उसी से काम चल जायेगा, व्यर्थ के प्रयास (कष्ट) से क्या प्रयोजन है। इसके सिवाय दोनों कहने से उलटा गौरव होता है तथा बचनों का आधिक्य होने से उसमें ग्राह्यता भी नहीं रहती है?
___ शंका चालू अस्तीति न जातव्यं राटि सा जास्तीति तन्तासिटौ।
नोपादानं पृथगिह युक्तं तदनर्थकादिति चेत् ॥ २९०॥ शंका चालू- इसलिये तत्व की भले प्रकार सिद्धि के लिये या तो केवल अस्ति'ही कहना ठीक है अथवा केवल 'नास्ति'कहना ही ठीक है दोनों का अलग-अलग ग्रहण करना युक्ति संगत नहीं है। दोनों का ग्रहण व्यर्थ पड़ता है?
समाधान २२१-२१२ तन्न यतः सर्वं सत् तदुभयभावाध्यतसितमेवेति ।
अन्यतरस्य विलोपे तदितरभावस्य मिलतापत्तेः।। २९१ ॥ अर्थ- उपर्युक्त शंका ठीक नहीं है क्योंकि सम्पूर्ण पदार्थ"अस्ति-नास्ति"स्वरूप उभय (दोनों) भावों को लिये हुये हैं। यदि इन दोनों भावों में से किसी एक का भी लोप कर दिया जाये, तो बाकी का दूसरा भाव भी लुप्त हो जायेगा (देखो पूर्व नं. १९)।
स यथा केवलमन्वयमात्रं वस्तु प्रतीयमानोऽपि ।
व्यतिरेकाभावे किल कथमन्वयसाधकश्च स्यात् ॥ २९॥ अर्थ - अस्ति-नास्ति में से किसी एक के नहीं मानने पर शेष दूसरे के अभाव का प्रसंग इस प्रकार आता है कि यदि केवल 'अस्ति रूप' वस्तु को माना जावे तो वह सदा अन्वयमात्र ही प्रतीत होगी, व्यतिरेक रूप नहीं होगी और बिना व्यतिरेक भाव के स्वीकार किये वह अन्वय की साधक भी नहीं रहेगी। ___ भावार्थ - वस्तु में एक अनुगत प्रतीति होती है और दूसरी व्यावृत्त प्रतीति होती है। जो वस्तु में सदा एकसा ही भाव जताती रहे उसे अनुगत प्रतीति अथवा अन्वय भाव कहते हैं और जो वस्तु में अवस्था भेद को प्रगट करे उसे व्यावृत्त प्रतीति अथवा व्यतिरेक कहते हैं। वस्तु का पूर्ण स्वरूप दोनों भावों को मिलकर ही होता है। इसीलिये दोनों परस्पर सापेक्ष है। यदि इन दोनों में से एक को भी न माना जाय तो दूसरा भी नहीं ठहर सकता है। फिर ऐसी अवस्था में वस्तु भी अपनी सत्ता नहीं रख सकती है। इसलिये अस्ति-नास्ति रूप अन्वय और व्यतिरेक दोनों ही वस्तु में एक साथ मानना ठीक है ( पेज १६ के नीचे का सार अवश्य देखिये)।
शंका २९३ से २९८ तक ६ श्लोक इकट्ठे ननु का नो हानिः स्याटस्तु व्यतिरेक एव तद्वदपि ।
किन्त्वन्वयो यथास्ति व्यतिरेकोऽप्यरित चिदचिदिव ॥ २९३॥ अर्थ - शंकाकार कहता है कि यदि व्यतिरेक के अभाव में अन्वय भी नहीं बनता तो व्यतिरेक भी उसी तरह मानों, इसमें हमारी कौनसी हानि है ? किन्तु इतना अवश्य मानना चाहिये कि अन्वय स्वतन्त्र है और व्यतिरेक स्वतन्त्र है। वे दोनों ऐसे ही स्वतन्त्र है जैसे कि जीव और अजीव।