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प्रथम खण्ड/ द्वितीय पुस्तक
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नित्य ही मानेंगे। नित्य मानने पर उसमें मोक्ष प्राप्ति आदि कुछ भी न सिद्ध हो, इसकी हमें परवाह नहीं है क्योंकि औषधि रोगी का रोग दूर करने के लिये दी जाती है। यह आवश्यक नहीं है कि वह रोगी को अच्छी लगे या बुरी लगे ।
भावार्थ - औषधि देते समय यह विचार नहीं किया जाता है कि रोगी इसे अनुकूल समझेगा या नहीं, उसके समझने न समझने पर औषधि का देना अवलम्बित नहीं है। उसी प्रकार यहाँ पर वस्तु विचार आवश्यक है। उसमें चाहे कोई भी दोष आओ अथवा किसी का अभाव हो जाओ इससे शंकाकार की कुछ हानि नहीं है ।
पुनः भावार्थ- हम आत्मा शुद्ध ही मानते हैं। हमको विक्रिया क्या करनी है। कारक का अभाव हो तो हो ऐसा उसके पेट में है। शिष्य बतानुपी है।
तावत् ।
यत्सत्तत्क्षणिकादिति यासन्नोदेति जलददृष्टान्तः ॥ ४२८ ॥
अर्थ - ग्रन्थकार कहते हैं कि शंकाकार के पदार्थ को सर्वथा नित्य मानना आदि विचार तभी तक ठहर सकते हैं जब तक कि उसके सामने मेघ का दृष्टान्त नहीं आया है। जिस समय उसके सामने यह अनुमान रखा जाता है कि जो सत् है वह क्षणिक है जैसे जल के देने वाले मेघ । उसी समय उसके नित्यता के विचार भाग जाते हैं अर्थात् जो मेघ अभी आते हुये दीखते हैं वे ही मेघ तुरन्त ही नष्ट-विलीन होते हुये भी दीखते हैं। ऐसी अवस्था में कौन साहस कर सकता है कि वह पदार्थ को सर्वथा नित्य कहे ?
समाधान सत्यं सर्वमनीषितमेतत्तदभाववादिनो
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प्रागेव सतो नाशादपि प्रमाण व तत्फलं यस्मात् ॥ ४२९ ॥
अर्थ सत् पदार्थ अनित्य है ऐसा पक्ष भी उनका (सत् को अनित्य मानने वालों का ) स्वयं शत्रु है; क्योंकि जब सत् अनित्य है तो पहले ही उसका नाश हो जायेगा, फिर प्रमाण और उसका फल किस प्रकार बन सकता है ? अर्थात् नहीं बन सकता।
सर्वथा अनित्य एकान्त का खण्डन ४२१ से ४३२ तक अयमप्यात्मरिपुः स्यात्सदनित्यं सर्वथेति किल पक्षः |
अपि यत्सत्तदिति बचो भवति च निग्रहकृते स्वतस्तस्य । यस्मात्सदिति कुतः स्यात्सिद्धं तच्छून्यवादिनामिह हि ॥ ४३० ॥
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अर्थ दूसरे " जो सत् है वह" यह वचन ही स्वयं उनके निग्रह के लिये है क्योंकि सत् का अभाव मानने वालों के मत में सत् की सिद्धि कैसे की जा सकती है।
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भावार्थ - जिस समय वे सत् को अनित्य सिद्ध करने के लिये अनुमान प्रयोग में यह प्रतिज्ञा बोलेंगे कि 'जो सत् है वह अनित्य है तो यह कहना तो स्वयं उनकी पकड़ का कारण हो जायेगा क्योंकि सत् तो है ही नहीं फिर "जो सत् है वह " यह शब्द कैसा ?
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अपि च सदमन्यमानः कथमिव तद्द्भावसाधनायालम् । हिमस्मीत्यध्यवसायादिवदुव्यलीकत्वात् ॥ ४३१ ॥
बन्धासुर्त
अर्थ तीसरे यदि सत् का अभाव स्वीकार करते हुये ही किसी प्रकार पदार्थ में नित्यपने का अभाव सिद्ध किया जाता है तो यह सिद्ध करना उसी प्रकार पिथ्या ( झूठा ) है जिस प्रकार किसी का यह कहना कि मैं बांझ स्त्री के पुत्र को मारता हूँ, मिथ्या है।
भावार्थ - जब बांझ स्त्री के पुत्र ही नहीं होता तो फिर मारा किसे जायेगा । उसी प्रकार जब सत् का अभाव ही सर्वथा अनित्यवादियों ने स्वीकार कर लिया है तो वे नित्यता का अभाव किसमें सिद्ध करेंगे। जगत् में सत् के आश्रय से ही विकल्प उठता है। बिना सत् के विकल्प क्या ? किसी को यह विकल्प नहीं होता कि मैं बन्ध्या के पुत्र को मारूँ बिना पदार्थ के विकल्प ही नहीं होता। जब सतू ही नहीं तो विकल्प क्या ?