________________
प्रथम खण्ड/द्वितीय पुस्तक
११२
या हीनाधिक क्षेत्रवाला मानना लक्षणाभास है।(३)तीसरे द्रव्य का उपभोग अपने सब देश क्षेत्र में सीमित है इसलिये एक है जैसे आत्मा को सुख-दुःख का अनुभव होगा तो सम्पूर्ण देशों में एक डिग्री का बराबर होगा अतः वह एक है अथवा पुदगल के एक परमाणु में स्पर्श का परिणमन होगा तो सारे में एक जैसा होगा इसलिये क्षेत्र एकत्व है, यह भी लक्षणाभास है क्योंकि इस प्रकार एकत्व सिद्ध करने से अनेकत्व सिद्ध करने का कोई मार्ग नहीं है। क्षेत्र के प्रदेश कम-ज्यादा होते हों तो क्षेत्र से अनेकत्व सिद्ध हो जाय पर ऐसा कभी होता नहीं यदि संकोच विस्तार से वह अनेकत्व सिद्ध करने का प्रयत्न किया तो तीन द्रव्यों में तो संकोच विस्तार ही नहीं होता और दो हैं ही एक प्रदेशीउनमें संकोच विस्तार का प्रश्न ही नहीं। अत: यह भी लक्षणाभास है। इसका मर्म यह है कि शिष्य की बात में दम तो था और आचार्य इस अपेक्षा एकत्व मानने को तैयार भी थे। इसमें सहसा कोई दोष नहीं दीखता था, एकत्व ठीक बनता था पर जब क्षेत्र की अपेक्षा अनेकत्व का प्रश्न आकर खड़ा हुआ तो उसका उत्तर यही हो सकता है कि उपभोग क्षेत्र के वे प्रदेश कम-ज्यादा हों तो अनेकत्व ठीक सिद्ध हो जाये पर ऐसा कभी होता नहीं। अतः मामला अटक गया। जब अनेकत्व नहीं बना तो आचार्य कहते हैं कि भाई इसलिये इस प्रकार एकत्व भी मानना ठीक नहीं है। इस प्रकार शिष्य की सब खोटी मान्यताओं का खण्डन करके सत् को सब प्रकार से एकत्व सिद्ध किया गया। अब शिष्य कहता है कि सर्वथा एक है तो कहते हैं कि जिस प्रकार अनेक होने से अनेक तू कहता है वैसा नहीं है। किन्तु प्रतीति के अनुसार अनेकत्व है जैसे पहले नं. ४५६ में कहा है। वास्तव में एक ही है।
काल से एक (४७१ से ४७८ तक) कालः समयो यदि वा तद्देशे वर्तनाकृतिश्चात् ।
तेनाप्यखण्डितत्त्वादभवति सदेकं तदेकनययोगात ||४७११ अर्थ - काल, समय अथवा उस देश (वस्तु) में वर्तना रूप आकार का होना, ये तीनों ही बातें एक हैं। उस काल से भी वस्तु अखण्डित है। वस्तु में यह अखण्डता द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से लाई जाती है।
अयमर्थः सन्मालामिह संस्थाप्य प्रवाहरूपेण |
कमतो व्यस्तसमस्तैरितस्ततो वा विचारयन्तु बुधाः ||४७२॥ अर्थ - अर्थ यह है कि यहाँ सत की माला को(त्रिकालवी परिणामों को प्रवाहरूप से संस्थापित कम से अलग-अलग या मिलाकर इधर-उधर से बुधजन विचार करें (तो उन्हें ज्ञात होगा कि)
काल से एकत्व का लक्षण तौकावसरस्थं यद्यातद्यादृगस्ति सत्सर्वम् ।
सर्वावसरसमुदितं तत्तावतादृशास्ति सत्सर्वम् ॥ ४७३॥ अर्थ - उन सब समयों में से एक समय में रहने वाला जो, जितना और जिस प्रकार का संपूर्ण सत् है, वही उतना और उसी प्रकार का संपूर्ण सत् समुदित सब समयों में भी है (यह काल से एकत्व का करणसूत्र है)।
लक्षणाभास तथा दृष्टान्ताभास न पुनः कालसमृद्रौ यथा शरीराटिवृद्धिरिति वृद्धिः।
अपि तद्धानौ हानिर्ज तथा वृद्धिर्न हानिरेव सतः ॥ ७ ॥ अर्थ - किन्तु ऐसा नहीं है कि जिस प्रकार काल की वृद्धि होने पर शरीरादि की वृद्धि होती है इस प्रकार वृद्धि और जिस प्रकार काल की हानि होने पर शरीरादि की हानि होती है उस प्रकार हानि, उस प्रकार काल की अपेक्षा सत् की वृद्धि हानि नहीं होती है। वह काल की अपेक्षा सदा एकसा ही रहता है।
शंका जनु भवति पूर्वपूर्वभावध्वंसानु हानिरेव सतः ।
स्यादपि तदुत्तरोत्तरभावोत्पादेन वृद्धिरेत सतः ॥ ४७५ ॥ शंका- जब पदार्थ में पहले-पहले भावों ( पर्यायों ) का नाश होता जाता है तो अवश्य ही पदार्थ की हानि ( न्यूनता) होती है और जब उत्तरोत्तर-नवीन भावों का उसमें उत्पाद होता रहता है तो अवश्य ही उसकी वृद्धि होती है।