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प्रथम खण्ड / तृतीय पुस्तक
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भावार्थ - भेद (पर्याय) को गौण रखकर मुख्यता से जहाँ अखण्ड द्रव्य कहा जाता है अथवा उसका ज्ञान किया जाता है वह द्रव्यार्थिक नय कहलाता है और वह एक है क्योंकि उसमें भेद विवक्षा नहीं है।
पर्यायार्थिक नय का निरुक्ति- अर्थ
अंशाः पर्याया इति तन्मध्ये यो विवक्षितोंऽशः सः 1
अर्थो यस्येति मत: पर्यायार्थिकनयस्तवनेकश्च ॥ ५१९ ॥
अर्थ - अंशों का नाम ही पर्यायें हैं। उन अंशों के बीच में से जो भी विवक्षित अंश है, वह अंश है, अर्थ अर्थात् प्रयोजन (विषय) जिसका वह पर्यायार्थिक नय माना गया है। ऐसे पर्यायार्थिक नय अनेक हैं।
भावार्थ- ग्रन्थकार पहले श्लोक नं. २६ में कह आये "कि जो द्रव्य में अंश कल्पना है वह पर्यायों का धर्म है।" इसलिये जो अखण्ड द्रव्य के किसी भी एक अंश का निरूपण करता है वह पर्यायार्थिक नय है। अंश अनेक हैं इसलिये उनको विषय करने वाला ज्ञान भी अनेक है तथा उनको प्रतिपादन करने वाला वाक्य भी अनेक है। अतः ये नय अनेक हैं ।
अधुना रूपदर्शनं संदृष्टिपुरस्सरं द्वयोर्वक्ष्ये ।
श्रुतपूर्वमिव सर्व भवति च यद्वानुभूतपूर्वं तत् ॥ ५२० ॥
अर्थ - अब उन दोनों के स्वरूप कथन को दृष्टान्तपूर्वक कहूँगा क्योंकि दृष्टान्त पूर्वक कहने से सब विषय श्रोताओं को पहले सुने हुये के समान अथवा अनुभव किये हुये के समान हो जाता है।
५१६ से ५२० तक का सार
जितना भी विकल्पात्मक ज्ञान है उसे नय कहते हैं यह पहले ही बता आये हैं। अतः विकल्प सामान्य की अपेक्षा नय को एक बतलाया है। किन्तु कोई विकल्प सामान्यग्राही (अखण्डग्राही ) होता है और कोई विशेषग्राही (खण्डग्राही ) होता है। इस प्रकार विकल्प के दो भागों में बट जाने के कारण नय के भी दो भेद हो जाते हैं। द्रव्यार्थिक नय और पर्यायार्थिक नय । इनमें से जो नय द्रव्य अर्थात् सामान्य (अभेद ) को विषय करता है वह द्रव्यार्थिक नय है और जो नय पर्याय (भेद) को विषय करता है वह पर्यायार्थिक नय है। सामान्य एक है अतः द्रव्यार्थिक नय एक है और पर्यायें ( अंश-भेद ) अनेक होते हैं अतः पर्यायार्थिक नय अनेक हैं।
नोट- नय के भूल दो भेदों का कथन पूरा हुआ अब उनमें से पहले व्यवहार नय का वर्णन करते हैं।
व्यवहार नय का वर्णन ५२१ से ५२४ तक
नोट- द्रव्यार्थिक (निश्चय) और पर्यायार्थिक (व्यवहार) नयों में से पहले व्यवहार नय के निरूपण करने का प्रयोजन यह है कि व्यवहार नय प्रतिषेध्य है और निश्चय नय प्रतिषेधक है। प्रतिषेध्य का निरूपण किए बिना प्रतिषेध किसका करें।
पर्यायार्थिकनय इति यदि वा व्यवहार एव जामेति ।
एकार्थो यस्मादिह सर्वोऽप्युपचारमात्रः स्यात् ॥ ५२१ ॥
अर्थ - पर्यायार्थिक नय अथवा इसका व्यवहार नय भी नाम है। इनका एक ही अर्थ है क्योंकि इस नय के विषय मैं जितना भी व्यवहार है सब उपचार मात्र है।
भावार्थ- वस्तु वास्तव में अखण्ड है जो निश्चय का विषय है। अतः निश्चय नय सत्यार्थ है और भेद तो केवल समझाने के लिये काल्पनिक किया जाता है। अतः इस नय का विषय अभूतार्थं होने से इसको पर्यायार्थिक, व्यवहार, उपचार अभूतार्थं, असत्यार्थ आदि अनेक नामों से पुकारा जाता है।
व्यवहार नय का लक्षण
व्यवहरणं व्यवहारः स्यादिति शब्दार्थतो न परमार्थः ।
स यथा गुणगुणिनोरिह सदभेदे भेदकरणं स्यात् ॥ ५२२ ॥
अर्थ- किसी वस्तु में विधि पूर्वक भेद करने का नाम व्यवहार है। यह उसका शब्द (निरुक्ति) के आधार से अर्थ है किन्तु परमार्थ अर्थ नहीं है। परमार्थ इस कारण नहीं है कि सत् में अभेद होने पर भी यह गुण है - यह गुणी है' इस प्रकार गुण गुणी में भेद करता है। जैसे जीव गुणी, ज्ञान गुण ।