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प्रवराज श्री पञ्चाध्यायी
समाधान ४२२ से ४२६ तक यतस्तदभावे बलवानस्तीह
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सर्वथैकान्तः ।
सोपि च सदनित्यं वा सन्नित्यं वा न साधनायालम् ॥ ४२२ ॥
अर्थ- शंकाकार का उपर्युक्त कहना ठीक नहीं हैं क्योंकि यदि अनेकान्त का अभाव मान लिया जाय तो उस समय एकान्त ही सर्वथा बलवान सिद्ध होगा। वह या तो सत् को सर्वथा नित्य ही कहेगा अथवा सर्वथा उसे अनित्य ही कहेगा परन्तु सर्वथा एकान्त रूप से पदार्थ में न तो नित्यता ही सिद्ध होती है और न अनित्यता ही सिद्ध होती है। इसलिये एकान्त पक्ष से कुछ भी सिद्ध नहीं होता है। अब इसी बात को नित्य अनित्य पक्षों द्वारा नीचे दिखाते हैं।
सर्वथा नित्य एकान्त का खण्डन ४२३ से ४२८ तक सन्नित्यं सर्वस्मादिति पक्षे विक्रिया कुतो न्यायात् ।
तद्भावेपि न तत्त्वं क्रिया फलं कारकाणि यावदिति ॥ ४२३ ॥
अर्थ - सर्वथा सत् नित्य ही है। ऐसा पक्ष स्वीकार करने पर पदार्थ में विक्रिया किस न्याय से हो सकती है ? अर्थात् नहीं हो सकती। यदि पदार्थ में विक्रिया न मानी जाय तो उसके अभाव में पदार्थ ही सिद्ध नहीं होता है, न क्रिया ही सिद्ध होती है, न उसका फल सिद्ध होता है और उसके कारकदि) ही सिद्ध होते हैं। कुछ भी सिद्ध नहीं होता।
परिणामः सदवस्था कर्मत्वाद्विक्रियेति निर्देशः । तदभावे सदभाते नासिद्धः सुप्रसिद्धदृष्टान्तात् ॥ ४२४ ॥
अर्थ- क्योंकि सत् पदार्थ की अवस्थाओं का नाम ही परिणाम है और पदार्थ का कार्य होने से उसी को विक्रिया के नाम से कहते हैं। उस परिणाम का प्रतिक्षण होने वाली अवस्थाओं का अभाव मानने पर सत् का ही अभाव हो जाता है। यह बात असिद्ध नहीं है किन्तु सुसिद्ध दृष्टान्त से सिद्ध है ।
अथ तद्यथा पटस्य क्रिया प्रसिद्धेति तन्तुसंयोगः ।
भवति पटाभावः किल तद्भावे यथा तदनन्यात् ॥ ४२५ ॥
अर्थ यह जगत् प्रसिद्ध है कि अनेक तन्तुओं का संयोग ही पट की क्रिया है। यदि वह तन्तु संयोग रूप पटक्रिया न मानी जाय तो पट ही कुछ नहीं ठहरता है क्योंकि तन्तु संयोग से अतिरिक्त पट कोई पदार्थ नहीं है।
भावार्थ - तन्तु संयोगरूप क्रिया के मानने पर ही पट की सत्ता और उससे शीतनिवारण आदि कार्य सिद्ध होते हैं । यदि तन्तु संयोग रूप क्रिया न मानी जाय तो भिन्न-भिन्न तन्तुओं से न तो पदात्मक कार्य ही सिद्ध होता है और न उस स्वतन्त्र तन्तुओं से शीतनिवारण आदि कार्य ही सिद्ध होते हैं। इसलिये तन्तुसंयोग रूप क्रिया पट की अवश्य माननी पड़ती है।
अपि साधनं क्रिया स्यादपवर्गरत्तत्फलं प्रमाणत्वात् ।
तत्कर्त्ता ना कारकमेतत् सर्वं न विक्रियाभावात् ॥ ४२६ ॥
अर्थ यदि विक्रिया मानी जाती है तब तो मोक्ष प्राप्ति का जो साधन (उपाय ) किया जाता है वह तो क्रिया पड़ती है और उसका फल मोक्ष भी प्रमाण सिद्ध है तथा उसका करने वाला कर्त्ता आत्मा होता है। यदि पदार्थ में विक्रिया ही न मानी जाय तो इनमें से एक भी कारक सिद्ध नहीं होता है।
भावार्थ- पदार्थों में विक्रिया मानने पर ही इस जीव के मोक्ष प्राप्ति रूप फल और उसके साधनभूत सम्यग्दर्शनादि कारण सिद्ध होते हैं। अन्यथा कुछ भी नहीं बनता ।
ननु का जो हानिः स्याद्भवतु तथा कारकाराभावश्च ।
अर्थात् सन्नित्यं किल न द्यौषधमातुरे तमनुवर्ति ॥ ४२७ ॥
अर्थ - शंकाकार कहता है कि ग्रन्थकार ने विक्रिया के अभाव में जो कारकादि न बनना आदि दोष बतलाये हैं वे हों अर्थात् कारकादि भले ही सिद्ध न हों, ऐसा मानने से भी हमारी कोई हानि नहीं है। हम तो पदार्थ को सर्वथा