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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
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विशेषार्थ - सुन्द और उपसुन्द के विषय में ऐसी कथा आई है कि सुन्द और उपसुन्द ये समान शक्तिवाले दो मल्ल थे। इन्होंने तपश्चर्या करके शंकर को प्रसन्न कर लिया और फलस्वरूप पार्वती की मागनी की। शंकर ने पार्वती दे दी। किन्तु पार्वती के लिये दोनों में विवाद उठ खड़ा हुआ और उनके विवाद को मेटने के लिये एक मध्यस्थ की आवश्यकता पड़ी।यह देख शंकर बाह्मण का रूप धरकर उनके पास पहुँचे और उनके द्वारा प्रार्थना करने पर मध्यस्थ होना स्वीकार कर लिया। दोनों पक्ष की बातें सुनकर यह न्याय दिया कि तुम दोनों क्षत्रिय हो,अतः युद्ध द्वारा इस विवाद को मिटाना चाहिये। अन्त में उन दोनों में युद्ध हुआ और वे युद्ध करते हुए एक साथ मर गये।
इस प्रकार यह इनका कथानक है। अब यदि सत् और परिणाम को सुन्द और उपसुन्द स्थानीय माना जाता है तो इतरेतराश्रय दोष आता है, अत: प्रकृत में यह दृष्टान्त उपयोगी नहीं है यह उक्त कथन का तात्पर्य है ॥ ३८३-३८४॥
पूर्व-पश्चिम दिशा भी दृष्टान्ताभास है इसके बाद पूर्व पक्ष ने पूर्व और पश्चिम दिशा का दृष्टान्त देकर सत् और परिणाम को उनके समान बतलाया गया है। किन्तु उत्तर पक्ष में इस पर विचार नहीं किया गया है। इसके दो कारण प्रतीत होते हैं एक तो यह कि सम्भव है इसके समाधान में जो श्लोक लिखे गये हों वे त्रुटित हो गये हों। दूसरा यह कि सरल समझ कर उत्तर न दिया गया हो। जो भी कारण हो, इतना स्पष्ट है कि यह दृष्टान्त भी प्रकृत में लागू नहीं है, क्योंकि दिशा व्यवहार जिस प्रकार उपचार से किया जाता है सत् और परिणाम वैसे उपचरित नहीं हैं, किन्तु वास्तविक हैं।
कारकद्वय भी, दृष्टान्ताभास है नार्थक्रियासमर्थो दृष्टान्तः कारकादिवद्धि यतः । सव्यभिचारित्वादिह
सपक्षवृत्तिर्विपक्षवृत्तिश्च ।। ३८५।। वृक्षे शारया हि यथा स्यादेकात्मनि तथैव नानात्वे । स्थाल्यो दधीति हेलोर्व्यभिचारी कारकः कथं न स्यात् ॥ ३८६ ॥ अयि सव्यभिचारित्वे यथाकथञ्चित्सपक्षटक्षरयेत् । न यतः परपक्षरिपुर्यथा तथारि: स्वयं रखपक्षस्य ।। ३८७ ॥ साध्यं देशांशाद्वा सत्परिणामदयस्य सांशत्चम ।
सत्ताभ्येकविलोपे कस्यांशा अंशमात्र एवांश: ॥ २८८॥ अर्थ - सत् और परिणाम के विषय में कारक युग्म का दृष्टान्त भी कार्यकारी नहीं है, क्योंकि यह सपक्ष और विपक्ष दोनों में रहता है इसलिये सव्यभिचारी है ॥ ३८५।। जिस प्रकार अभेद पक्ष में 'वृक्ष में शाखा है' यह व्यवहार होता है उसी प्रकार भेद पक्ष में 'वटलोई में दही है' यह व्यवहार होता है। इस कारण से कारकयुग्म का दृष्टान्त व्यभिचारी क्यों नहीं होगा।। ३८६ ।। यदि कहा जाय कि कारक दृष्टान्त के सव्यभिचारी होने पर भी वह किसी प्रकार पक्ष का ही समर्थक है सो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि जिस प्रकार बह पर पक्ष का शत्रु है उसी प्रकार वह स्वयं स्वपक्ष का भी शत्रु है ॥ ३८७॥ प्रकत में शंकाकार द्वारा देशांश रूप से सत् और परिणाम ये दोनों सांश सिद्ध किये जा रहे हैं पर जब कि उनका कोई आधार ही नहीं तब फिर ये किसके अंश हो सकते हैं अर्थात किसी के भी नहीं। वास्तव में ये अंशमात्र ही अंश हैं ॥३८८॥
विशेषार्थ - कारक युग्म का दृष्टान्त देकर शंकाकार ने यह सिद्ध करना चाहा है कि सत् और परिणाम में कोई एक आधार है और दूसरा आधेय है या इन दोनों का कोई तीसरा आधार है। पर यह दृष्टान्त भेद पक्ष और अभेदपक्ष दोनों में घटित होता है इसलिए सव्यभिचारी होने से प्रकृत में उपयोगी नहीं है यह उक्त कथन का तात्पर्य हैं। कदाचित् शंकाकार इस दृष्टान्त द्वारा यह सिद्ध करना चाहता है कि सत् और परिणाम ये अंश हैं और अंशी इनसे जुदा है पर विचार करने पर उसका यह दृष्टिकोण भी समीचीन प्रतीत नहीं होता, क्योंकि इनके सिवा वस्तु का कोई दूसरा रूप