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प्रथम खण्ड/द्वितीय पुस्तक
भावार्थ - सत् जैसे स्वतः सिद्ध है वैसे ही वह स्वतः परिणमनशील भी है। इसलिये विवक्षावश उसमें एक धर्म मुख्य दूसरा गौण हो जाता है। इस मुख्य और गौण की दिवक्षा में ही सत् कभी किसी रूप और कभी किसी रूप कहा जाता है परन्तु मुख्य गौण की विवक्षा को छोड़कर सर्वथा एक धर्म ( एकान्त ) रूप सत् को मानने से किसी पदार्थ की सिद्धि नहीं हो पाती है। इसलिये सर्वथा कहने से सर्वनाश है और कथंचित् कहने से सर्वसिद्धि है जैसे (१)स्वभाव दृष्टि से सत् नित्य है। (२) परिणाम दृष्टि से सत् अनित्य है। (३) प्रमाण दृष्टि से सत् उभय है, नित्यानित्य है। (४) अखण्ड दृष्टि से सत् अनुभय है अर्थात् न नित्य है न अनित्य है, अभेद्य है। अनिर्वचनीय है अखण्ड है।(५) स्वभाव त्रिकाल रहने वाली वस्तु है और परिणाम एक समय मात्र की क्षणिक अवस्था इस अपेक्षा से सत् व्यस्तरूप है - जुदा-जुदा है।(६) जो स्वभाव रूप है वही तो परिणाम रूप है इस दृष्टि से सत् समस्त (इकट्ठा) है।(७) परिणाम क्रमबद्ध उत्पन्न होते हैं इस दृष्टि सेक्रमवतीं है(क)स्वभाव सदा एक रूप रहता है इस दृष्टि से अक्रमवती है।(४१४ से ४१७)। सारांश यह है कि स्यात् पद लगाने से ( अनेकान्त दृष्टि से) सब ठीक है। सर्वथा पद लगाने से ( एकान्त दृष्टि से) एक भी ठीक नहीं है। परिणाम, पर्याय, अवस्था, दशा, परिणमन, विक्रिया, कर्म, कार्य, परिणति, भाव ये सब पर्यायवाची हैं। पर्यायकेद्योतक हैं।स्वभाव, सत्त्व,सामान्य,वस्त,पदार्थ द्रव्यये पर्यायवाची हैं। स्वभाव के द्योतक हैं।
इसी का स्पष्टीकरण अथ तद्यथा यथा सत्रवतोऽस्सि सिद्धं तथा च परिणामि ।
इलि नित्यमथालित्यं सच्चैकं द्विस्वभावतया ॥ ३३८ ।। अर्थ - खुलासा इस प्रकार है कि जैसे सत् स्वतः सिद्ध है वैसे ही वह स्वतः परिणमनशील भी है। इस प्रकार एक ही सत् दो स्वभाववाला होने से नित्य भी है और अनित्व भी है।
भावार्थ - वह सदा रहता है अर्थात् अपने स्वरूप को कभी नहीं छोड़ता है इस दृष्टि से वह नित्य भी है और प्रतिक्षण वह बदलता भी रहता है अर्थात् एक अवस्था से दूसरी अवस्था में आया करता है इस दृष्टि से अनित्य भी है। इस प्रकार एक ही सत् दो स्वभाववाला है।
अयमर्थो वस्तु यदा केवलमिह दृश्यते न परिणामः ।
नित्यं तदव्ययादिह सर्व स्यादन्वयार्थनययोगात् ॥ ३३९॥ अर्थ - आशय यह है कि जिस समय वस्तु पर दृष्टि रखी जाती है, परिणाम पर दृष्टि नहीं होती उस समय द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से वस्तु नित्य प्राप्त होती है क्योंकि वस्तु सामान्य का कभी भी नाश नहीं होता है।
अपि च यदा परिणाम: केवलमिह दृश्यते ज किल वस्तु।
अभिनतभावानभिनवभावाभावाटनित्यमशनयात् ॥ ३४० ।। अर्थ - तथा जिस समय पदार्थ पर दृष्टि नहीं रक्खी जाती, केवल उस परिणाम पर ही दृष्टि रखी जाती है उस समय पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा वस्तु अनित्य प्राप्त होती है क्योंकि प्रतिसमय नवीन पर्याय की उत्पत्ति और पुरानी पर्याय का नाश देखा जाता है।
भावार्थ ३३९-४४ - यहाँ पर केवल वस्तु के परिणाम अंश को ग्रहण किया गया है ऊपर उसके द्रव्य अंश को ग्रहण किया गया है। वस्तु के एक देश को परस्पर सापेक्ष ग्रहण करनेवाली ही नय है।
सत् और परिणाम के विषय में शंकाकार की अनेक आपत्तियाँ नन चैक सदिति यथा तथा च परिणाम तद दैतम ।
वक्तुं क्षममन्यतरं क्रमतो हि समं न तदिति कुतः ॥३४१॥ शंका - जिस प्रकार सत् एक है उसी प्रकार परिणाम भी एक है, ये दो हैं फिर क्या कारण है कि इन दोनों में से किसी का क्रम से ही कथन किया जा सकता है दोनों का एक साथ नहीं ॥३४१॥
क्या वे दोनों वर्गों की ध्वनि के समान हैं
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