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ग्रस्थराज श्री पञ्चाध्यायी
सिंह साधु भी दृष्टान्ताभास है नालमसौ दृष्टान्त: सिंहः साधुर्यथेह कोऽपि नरः । दोषादपि स्वरूपासिद्धत्वारिकल यथा जलं सुरभि ॥ ३६५ ॥ नासिद्धं हि रतरूपासिदत्वं तरय साध्यशून्यत्वात् ।
केवलमिह रूढितशादुपेक्ष्य धर्मद्वयं यथेच्छत्वात् ॥ ३६६ ॥ अर्थ - जैसे कोई एक मनुष्य सिंह और साधु कहा जाता है सो प्रकृति में यह दृष्टान्त इष्ट की सिद्धि करने के लिए समर्थ नहीं है, क्योंकि जैसे जल सुरभि है, ऐसा मानने पर स्वरूपासिद्ध दोष आता है उसी प्रकार प्रकृत दृष्टान्त में भी स्वरूपासिद्ध दोष आता है ॥ ३६५॥ यहाँ स्वरूपासिद्धत्व दोष असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि दृष्टान्त साध्यशून्य है। दृष्टान्त साध्यशून्य इसलिये है, क्योंकि यहाँ दो धर्मों की उपेक्षा करके केवल रूढ़िवश इच्छानुसार सिंह और साथ ऐसा व्यवहार किया गया है | ३६६॥
विशेषार्थ - मनुष्य में सिंहत्व और साधुत्व धर्म के नहीं रहने पर भी व्यवहार में कभी वह सिंह और कभी साधु कहा जाता है। यदि सत् और परिणाम को वस्तु में इस प्रकार माना गया होता तो उक्त दृष्टान्त ठीक होता। किन्तु इसके विपरीत वस्तु सत्परिणामात्मक स्वरूप से है, इसलिये प्रकृत में यह दृष्टान्त उपयोगी नहीं है यह उक्त कथन का तात्पर्य है। नैयायिक दर्शन के अनुसार जल में सुगन्धि नहीं पाई जाती फिर भी 'जल सुगन्धित है' ऐसा कहा जाता है जो जैसे यह कड़ना तरूपामिड उसी प्रकार कन दुष्टान्त भी ग्वरूपासिद्ध है, अत: यह प्रकत में उपयोगी नहीं है ऐसा यहाँ समझना चाहिये ॥ ३६५-३६६॥
अग्नि वैश्वानर भी दृष्टान्ताभास है अग्निर्वैश्वानर इव नामद्वैतं च लेष्टसिद्धयर्थम् । साध्यविरुद्धत्वादिह संदृष्टेरथ च साध्यशून्यत्तात् ॥ ३६७ ॥ नामद्वयं किमर्थादुपेक्ष्य धर्मद्वयं च किमपेक्ष्य । प्रथमे धर्माभावेऽप्यलं विचारेण धर्मिमोऽभावात् ॥ ३६८॥ प्रथमेतरपक्षेऽपि च भिन्नमभिन्नं किमन्वयात्तदिति । भिन्लं चेटविशेषादुवतवदसतो हि किं विचारतया || २६९ ॥ अथ घेद्युतसिद्धत्वात्तन्निष्पत्तिर्द्धयोः पृथक्त्वेऽपि । सर्वस्य सर्वयोगात् सर्वः सर्वोऽपि दुर्निवारः स्यात् ।। ३७० ।। चेदन्तयादभिन्नं धर्मवैतं किलेति जयपक्षः । रूपपटादिवदिति किं किमय क्षारद्रव्यतच्येति ॥ ३७१।। क्षारद्रव्यदिदं चेटलुपादेयं मिथोडनपेक्षत्वात् । वर्णततेरविशेषन्यायान्न नयाः प्रमाणं वा ॥ ३७२ ।। रूपपटादिवदिति चेत्सत्यं प्रकृतस्य सानुकूलत्वात।
एक नामद्वयाङ्कमिति पक्षस्य स्वयं विपक्षत्वात् । ३७३ ॥ अर्थ - अग्नि और वैश्वानर इनके समान सत् और परिणाम ये एक वस्तु के दो नाम हैं ऐसा जो कथन कर आये हैं वह भी इष्ट का साधन नहीं है, क्योंकि यह कथन साध्य के विरुद्ध है और दृष्टान्त में साध्य शून्यता का दोष आता है॥३६७॥ आशय यह है कि प्रकृत दृष्टान्तद्वारा दो नामों की कल्पना की गई है वह दोनों धर्मों की उपेक्षा करके की गई है या उनकी उपेक्षा रखकर की गई है। पहला पक्ष स्वीकार करने पर धर्मों के अभाव में धर्मी का भी अभाव हो जाने से विचार करना ही व्यर्थ हो जाता है ।। ३६८॥ दूसरा पक्ष स्वीकार करने पर भी वे दोनों धर्म द्रव्य से भिन्न हैं कि अभिन्न हैं इस प्रकार ये दो प्रश्न उत्पन्न होते हैं ? यदि भिन्न पक्ष स्वीकार किया जाता है तो कोई विशेषता नहीं रहने से जैसे पहले धर्मों का अभाव कह आये हैं उसी प्रकार यहाँ भी धर्मी का अभाव प्राप्त होता है, अतः भिन्न पक्ष