________________
प्रथम खण्ड/द्वितीय पुस्तक
भावार्थ - तत् का अर्थ है वह, और अतत् का अर्थ है - वह नहीं जो तत् और अतत् का अर्थ है, वही नित्य और अनित्य का अर्थ है, फिर दोनों के कहने की क्या आवश्यकता है ?
समाधान जैवं यतो विशेषः समयात्परिणमति वा न जित्यादौ ।
तदतावविचारे परिणामो विसदृशोथ सदृशो वा ॥ ३१२ ॥ अर्थ - उपयुक्त शंका ठीक नहीं है क्योंकि नित्य-अनित्य में और तत भाव अतत भाव में अवश्य यह है कि नित्य, अनित्य पक्ष में तो वस्तु के समय-समय में होने वाले परिणमन का ही विचार होता है वहाँ पर समान परिणमन है या असमान परिगान है, इस बार नहीं है, गन्तुमात्र, अतद्भाव पक्ष में यह विचार होता है कि जो वस्तु में परिणमन हो रहा है, वह सदृश है अथवा विसदृश है।
शंका जनु सनित्यमनित्यं कथंचिदेताततै तत्सिद्धिः ।
तत्कि तटतभावाभावविचारेण गौरवादिति चेत ॥ ३१३॥ शंका - सत् कथंचित् नित्य है, कथंचित् अनित्य है, केवल इतने मात्र से ही सदृश और विसदृश परिणाम की सिद्धि हो जाती है, फिर तत्-अतत् के भाव और अभाव के विचार से क्या प्रयोजन ? इससे उलटा लम्बा ही होता है?
समाधान ३१४ से ३२१ तक नैवं तदतभावाभावविचारस्य निन्हवे दोषात् ।
नित्यानित्यात्मनि सति सत्यपि ल स्यात् क्रियाफल तस्तम् ॥ ३१४ ।। अर्थ - ऊपर की हुई शंका ठीक नहीं है क्योंकि तत्-अतत् के भाव और अभाव का विचार यदि न किया जाये तो वस्तु सदोष ठहरती है। तत्-अतत् के बिना वस्तु को नित्य और अनित्य स्वरूप मानने पर भी उसमें क्रियाफल और तत्त्व नहीं बन सकते।
अयमों पदि नित्यं सर्व सत् सर्वथेति किल पक्षः ।
न तथा कारणकार्ये, कारकसिद्धिस्तु विक्रियाभावात् ॥ ३१५।। अर्थ - स्पष्ट अर्थ यह है कि "सर्व सत् नित्य ही है"यदि सर्वथा ऐसा ही पक्ष मान लिया जाय तो विक्रिया का अभाव होने से कारण और कार्य, दोनों ही नहीं बनते तथा कारक सिद्धि भी नहीं होती भावार्थ के लिये आगे देखिये ४२२ से ४२८ तक।
यदि वा सदनित्यं स्यात्सर्वस्वं सर्वथेति किल पक्षः ।
न तथा क्षणिकत्वादिह क्रियाफलं कारकाणि तत्त्वं च ॥ ३१६ ॥ अर्थ - अथवा सत् को यदि सर्वथा अनित्य ही स्वीकार किया जाय तो वह क्षणिक ठहरेगा और क्षणिक होने से उसमें न तो क्रिया का फल ही हो सकता है और न कारक ही बन सकते हैं और न तत्त्व ( सत्-ध्रुव) ही रहता है। भावार्थ के लिये आगे देखिये ४२९ से ४३२ तक।
अपि नित्यानित्यात्मनि सत्यपि सति वा न साध्यसंसिद्धिः ।
तदतदभावाभावैविना न यरमाद्विशेषनिष्पत्तिः।।३१७॥ अर्थ - यदि तत्-अतत् के भाव-अभाव का विचार न करके केवल नित्यानित्यात्मक ही पदार्थ माना जाय तो भी साध्य की सिद्धि नहीं हो सकती है क्योंकि बिना तत्-अतत् के स्वीकार किये पदार्थ में विशेष की उत्पत्ति ही नहीं हो सकती है।