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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
अपि च व्ययोऽपि न सतो व्ययोऽप्यवस्थाव्ययः सतस्तस्य । प्रध्वंसाभातः संच परिणामित्वात् सतोऽप्यवश्यं स्यात् ॥ २०२ ॥ अर्थ तथा व्यय भी पदार्थ कर नहीं होता है, किन्तु उसी परिणमनशील द्रव्य की अवस्था का व्यय होता है। इसी को प्रध्वंसाभाव कहते हैं। यह प्रध्वंसाभाव परिणमनशील द्रव्य के अवश्य होता है।
धौव्यं सतः कथंचित् पर्यायार्थाच्च केवलं न सतः । उत्पादव्ययवदिदं तच्चैकांशं न सर्वदेशं स्यात् ॥ २०३ ॥
अर्थ - प्राव्य भी कथंचित् पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से पदार्थ के होता है। पर्याय दृष्टि को छोड़कर केवल पदार्थ का धौव्य नहीं होता है, किन्तु उत्पाद और व्यय की तरह वह भी एक अंश स्वरूप है। सर्वांश रूप नहीं है।
भावार्थ - जिस प्रकार उत्पाद और व्यय द्रव्यदृष्टि से नहीं होते हैं, उस प्रकार धौव्य भी द्रव्यदृष्टि से नहीं होता है किन्तु वह भी पर्याय दृष्टि से होता है, इसलिये उसको भी वस्तु का एक अंश रूप कहा गया है। यदि तीनों को द्रव्यदृष्टि से ही माना जाय तो वस्तु सर्वथा अनित्य और सर्वथा नित्य ठहरेगी।
तद्भावाव्ययमिति वा धौव्यं तत्रापि सम्यगयमर्थः ।
रा. पूर्वपरणामो भवति स पश्चात् स एव परिणामः ॥ २०४ ॥
अर्थ-धौव्य का लक्षण " तद्भावाव्ययम्" यह भी कहा गया है उसका भी यही उत्तम अर्थ है कि वस्तु के भाव का नाश नहीं होता अर्थात् जो वस्तु का पहले परिणाम है, वही परिणाम पीछे भी होता है।
पुष्पस्य यथा गन्धः परिणामः परिणमंश्च गन्धगुणः ।
नापरिणामी गन्धो न च निर्गन्धाद्धि गन्धवत्पुष्पम् ॥ २०५ ॥
अर्थ-जिस प्रकार पुष्प का गन्ध परिणाम है और गन्ध गुण भी परिणामी है। वह भी प्रतिक्षण परिणमन करता है। वह अपरिणामी नहीं है परन्तु ऐसा नहीं है कि पहले पुष्प गन्ध रहित हो और पीछे गन्ध सहित हुआ हो।
भावार्थ- गन्धगुण परिणमनशील होने पर भी वह पुष्प में सदा पाया जाता है। उसका कभी पुष्प में अभाव नहीं है। बस इसी का नाम ध्रौव्य है। जो गंध परिणाम पहले था वही पीछे रहता है।
तत्रानित्यनिदानं
ध्वंसोत्पादद्वयं
सतस्तस्य ।
नित्यनिटानं धुवमिति तत्त्रयमप्यंशभेदः स्यात् ॥ २०६ ॥
अर्थ - उन तीनों में उत्पाद और व्यय ये दो तो उस परिणामी द्रव्य में अनित्यता के कारण हैं और ध्रुव नित्यता का कारण है। ये तीनों ही एक-एक अंश रूप से भिन्न हैं।
ऐसा नहीं है
न च सर्वथा हि नित्यं किंचित्सत्वं गुणो न कश्चिदिति । तरमादतिरिक्तौ द्वौ परिणतिमात्रौ व्ययोत्पादौ ॥ २०७ ॥
अर्थ- कोई ऐसी आशंका न करे कि द्रव्य में सत्त्व तो सर्वथा नित्य है। बाकी का कोई गुण नित्य नहीं है और उससे सर्वथा भिन्न परिणतिमात्र उत्पाद, व्यय दोनों हैं। क्योंकि
ऐसा मानने में पहला दोष
सर्व विप्रतिपन्नं भवति तथा सति गुणों न परिणामः ।
नापि द्रव्यं न सदिति पृथक्त्व देशानुषङ्गत्वात् ॥ २०८ ॥
अर्थ - ऊपर कही हुई आशंका के अनुसार मानने पर सभी विवाद कोटि में आ जायगा। प्रदेश भेद मानने से न गुण की सिद्धि होगी न पर्याय की सिद्धि होगी । न द्रव्य की और न सत् की ही सिद्धि होगी क्योंकि भिन्न-भिन्न स्वीकार करने से एक भी (कुछ भी) सिद्ध नहीं होता ।