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प्रथम खण्ड/द्वितीय पुस्तक
रहे अनेकान्त रूप वस्तु है और 'स्याद्वाद अर्थात् कथंचित् ऐसा है यह उस वस्तु के बोलने की पद्धति है जिससे एकान्त का परिहार और अनेकान्त का समर्थन होता है, अनेकान्त कोई 'संशयवाद' या मदारी का खेल नहीं है। किन्तु वस्तु स्वयं अनेकान्त रूप स्वत: सिद्ध है। इसलिये ये अनेकान्त जैनों की कोई घड़ी हुई वस्तु नहीं हैं किन्तु स्तु ही स्वत: अनेकान्त रूप बनी हुई है। जैसी है वैसा ही इसका निरूपण कर देता है। एक और ध्यान रहे कि एक दृष्टि यह भी है कि एक द्रव्य अपने द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से है और वही द्रव्य उसी समय दूसरे द्रव्य के द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से नहीं है। इस पद्धति का भी जैनधर्म में प्रयोग बहुत मिलता है पर वह पद्धति यहाँ नहीं है। यहाँ तो सामान्य के द्रव्यक्षेत्र-काल-भाव में विशेष के द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की नास्ति है और विशेष के द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव में सामान्य के द्रव्य-क्षेत्र काल-भाव की नास्ति है यह दृष्टि है। यदि इसमें भूल हो गई तो प्रथम भाग के सारे ग्रंथ का अर्थ मिथ्या हो जायेगा। इस पर ग्रंथकार स्वयं पहले भी श्लोक नं.१५ से २२ तक प्रकाश डाल आये हैं। वह भी आप पुन: एकबार पढ़ लें तो हितकर होगा। यही चार युगल श्री समयसारजी के परिशिष्ट में भी हैं। वहाँ और यहाँ में यह अन्तर है कि वहाँ एक द्रव्य का द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव को दूसरे नया गाय-क्षेत्र-काल-भानों नारित रूप का है। तस्योंकि वहाँ आत्मा का प्रकरण है। ज्ञान ज्ञेय की बात है। ज्ञान (आत्मा) का द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव ज्ञेय में नहीं है और ज्ञेय का द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव ज्ञान में नहीं है। यहाँ एक द्रव्य का प्रकरण चल रहा है। यहाँ वस्तु को अनेकान्तात्मक सिद्ध करने के लिये सामान्य के द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव का स्वरूप भिन्न दिखाना है और विशेष के द्रव्य-क्षेत्र-काल का स्वरूप भिन्न दिखाना है। अन्य तीन युगल श्री समयसार में भी सामान्य विशेष दृष्टि से हैं और यहाँ भी सामान्य विशेष दृष्टि से हैं। दूसरे द्रव्य की बात नहीं है । पर इतना विशेष है। वहाँ केवल आत्मा पर और उसमें भी ज्ञानाकार और ज्ञेयाकार की अपेक्षा लेकर है। और यहां छहों द्रव्यों की बात है तथा यह दृष्टि है कि जैसे वस्तु स्वतः सिद्ध है वैसे वह स्वतः परिणामी भी है। इन चार युगलों का भाव तो ग्रंथकार ने समयसारजी से ही लिया है पर प्रकरणवश वह आत्मा का शास्त्र था यहाँ सामान्य वस्तु की बात है इसलिये निरूपण अपने-अपने विषय के अनुसार अपने-अपने ढंग का है। श्री अमृतचन्द्रजी ने अपने इन ही चार युगलों के १४ कलशों में एकान्त रूप वस्तु मानने वाले अन्यमती को, अज्ञानी को "पशु" संज्ञा दी है। इस ग्रंथकार ने भी उसे सिंहमाणवक कहा है। बिल्ली को शेर समझने वाला। भाव दोनों का एक ही है। आगे 'अस्ति-नास्ति 'युगल का वर्णन श्लोक ३०८ तक, तत्-अतत् युगल का वर्णन ३३५ तक, नित्यनित्य यगल का वर्णन ४३३ तक.एक-अनेक यगलका वर्णन ५०२ तक किया है। ग्रंथकार ने द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव को 'अस्ति-नास्ति' तथा 'एक-अनेक युगल पर तो लगा कर दिखा दिया है और शेष दो युगलों पर यह कह दिया है कि स्वयं लगा लेना, पर इसी प्रकार लगेगा उन पर भी अवश्य। श्री समयसारजी में केवल'अस्ति-नास्ति' इस एक युगल पर ही द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव लगाकर दिखाया गया है। इसलिये वहाँ ८ कलश'अस्ति-नास्ति' युगल के हैं और शेष तीन युगलों के ६ कलश ही हैं। इस प्रकार वहाँ १४ कलश इसी विषय के हैं। नास्ति' शब्द का अर्थ यहाँ सर्वथा अभाव नहीं है किन्तु गौण' अर्थ है। स्यात् का अर्थ कंचित् किसी अपेक्षा से , किसी एक दृष्टि से ऐसा है। वह अपेक्षा लोप है। स्वयं समझने योग्य है। जैसे 'द्रव्य स्यात् नित्य है।'' यहाँ स्यात् का अर्थ द्रव्यार्थिक दृष्टि है। द्रव्य द्रव्यार्थिक नय से नित्य हैं। उसी प्रकार "द्रव्य स्यात् अनित्य है।" यहाँ स्यात् का अर्थ पर्याय दृष्टि है। अर्थात् द्रव्य पर्यायार्थिक नय से अनित्य है। दुष्टि वक्ता के अभिप्राय में रहती है। इसी प्रकार सब समझ लेवें । जैसे द्रव्य स्यात् तत् है । यह सामान्य दष्टि है।द्रव्य स्यात् अतत् है वह विशेष दृष्टि है। इस दृष्टि से समय-समय का द्रव्य हो दूसरा है। ये चारों युगल सापेक्ष सच्चे हैं। निरपेक्ष मिथ्या हैं क्योंकि वस्तु सामान्यविशेषात्मक है। प्रत्येक युगल को चार दृष्टियों से देखा जाता है। जैसे नित्यानित्य पर इस प्रकार घटेगा।(१) बस्तु द्रव्य दृष्टि से नित्य है। (२) वस्तु पर्याय दृष्टि से अनित्य है।(३) वस्तु प्रमाण दृष्टि से उभय ( नित्यानित्यात्मक) है। (४) वस्तु शुद्ध दृष्टि से अनुभय है अर्थात् अखण्ड है। प्रत्येक युगल इसी प्रकार है और प्रत्येक युगल के अन्त में नय प्रमाण लगाकर भी दिखलाये गये हैं।"अस्ति-नास्ति''युगल का दूसरा नाम 'सत्-असत्' भी है। श्री समयसारजी में सत्-असत् के नाम से ही लिखा है। दोनों पर्यायवाची है।
सामान्य कथन समाप्त