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प्रथम खण्ड/द्वितीय पुस्तक
काल से 'अस्ति-नास्ति' (२७४ से २७८ तक) कालो वर्तनमिति वा परिणमनं वस्तुनः स्वभावेन ।
सोऽपिपूर्ववद्वयमिह सामान्यविशेषरूपत्वात् ॥ २७४ ॥ अर्थ - काल नाम वर्तन का है अथवा वस्तु का स्वभाव से परिणमन होने का है। वह काल भी पहले की तरह सामान्य और विशेष रूप से दो प्रकार है।
भावार्थ - किसी भी द्रव्य के जबतक काल( पर्याय ) पर दृष्टि है तबतक वह महासत्तारूप सामान्य काल है क्योंकि काल-काल-काल से भिन्नता नहीं आती जहाँ आपकी यह दुष्टि हुई कि जीव का काल(जीव की पर्याय)या पुदगल का काल या वर्तमान काल या भूतकाल या समय मात्र का काल बस समझ लो कि काल की अपेक्षा अवातर सना हो गई।काल रूप से देखना महासत्ता और कालको किसी भी काल के भेदरूप-अंशरूप देखना अवान्तर सत्ता जिस रूप से देखोगे वह मुख्य शेष गौण। मुख्य को अस्ति, गौण को नास्ति कहते हैं। यह काल से अस्ति-नास्ति है। यह ध्यान रहे कि काल कहो या सत कहो, इन दोनों शब्दों का वाच्य एक अखण्ड सत् ही है तथा प्रदेश दोनों हालतों में वही है स्वरूप भी वही है। जैसे जीव को केवल काल रूप देखना महासत्ता जीव काल रूप देखना अवान्तर सत्ता। काल द्रव्य को काल (पर्याय)रूप देखना महासत्ता, काल के काल रूप देखना अर्थात् काल द्रव्य को पर्याय रूप देखना अवान्तर सत्ता।
सामान्यं विधिरूपं प्रतिषेधात्मा भवति विशेषश्च ।
उभयोरन्यतमरयावमग्नोन्मग्नत्वादस्ति नास्तीति ॥ २७५ ॥ अर्थ - सामान्य विधिरूप है, विशेष प्रतिषेधरूप है। उन दोनों में से किसी एक के विवक्षित और अविवक्षित होने से अस्तित्व और नास्तित्व आता है।
भावार्थ - देखने से ऐसा लगता है कि नामालूम कितना कठिन श्लोक है किन्तु ओट तले पहाड़ है। सामान्य, विधि, निरंश, स्व शुद्ध, प्रतिषेधक, निरपेक्ष ये सब महासत्ता के पर्यायवाची शब्द हैं और विशेष, प्रतिषेध,सांश, पर, अशुद्ध, प्रतिषेध्य, सापेक्ष ये सब अवान्तर सत्ता के पर्यायवाची शब्द हैं। विवक्षित, उन्मग्न, अर्पित, अनुलोम, उन्मज्जत ये मुख्य के नामान्तर हैं और अविवक्षित, अवमग्न, अनर्पित, प्रतिलोम, निमजत ये गौण के नामान्तर हैं। श्लोक का भाव अब स्पष्ट है कि सामान्य काल भी है, विशेष काल भी है, दोनों मुख्य गौण होने से अस्ति-नास्ति रूप हैं। जो काल सामान्य है वही तो जीवकाल विशेष है।
तत्र निरंशो विधिरिति स यथा रखयं सदेवेति ।
तदिह विभज्य विभागौः प्रतिषेधरचशिकल्पनं तस्य ।। २७६ ॥ अर्थ- अंश कल्पना रहित-निरंश परिणमन को विधि कहते हैं जैसे स्वयं सत् परिणमन। सत् सामान्य में अंश कल्पना नहीं है किन्तु उसका सामान्य परिणमन है और उसी सत की भिन्न-भिन्न विभाजित अंश परिणमन कल्पना को प्रतिषेध कहते हैं। जैसे जीव द्रव्य का परिणमन, गुण परिणमन, पर्याय परिणमन।
भावार्थ - सामान्य परिणमन की अपेक्षा से वस्तु में किसी प्रकार का भेद नहीं होता है परन्तु विशेष-विशेष परिणमन की अपेक्षा से वही एक निरंश रूप वस्तु अनेक भेदवाली हो जाती है और वस्तु में होने वाले अंश रूप भेद ही प्रतिषेध रूप हैं।
तदुदाहरणं सम्प्रति परिणमनं सत्तयावधार्येत ।
अरित वितक्षिसतत्त्वादिह नास्त्यशरथावितक्षया तटिह ॥ २७७ ॥ अर्थ - यहाँ सामान्य और विशेष काल के साथ अस्ति-नास्ति का उदाहरण इस प्रकार है कि जिस समय वस्तु में भेद विवक्षा रहित सत्ता सामान्य के परिणमनकी विवक्षा की जाती है। उस समय वह सामान्य रूप स्वकाल की अपेक्षा से तो है, परन्तु अंशों की विवक्षा न होने से विशेषरूपपर-काल की अपेक्षा से वह नहीं है। जैसे जीव को केवल परिणमन