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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
प्रथम खण्ड/द्वितीय पुस्तक वस्तु की अनेकासात्मक स्थिति निरूपण ( २६१ से ५०२ तक)
प्रतिज्ञा उक्तं गुणपर्ययवद्रव्यं यत्तव्ययाटियुक्तं सत् ।
अथ वस्तुस्थितिरिह किल वाच्याऽनेकान्तबोधशुङ्यर्थम् ॥ २६१॥ अर्थ - जो द्रव्य, गुण पर्यायवाला है। वही द्रव्य, उत्पाद, व्यय, धौव्य युक्त सत् है। यह द्रव्य का लक्षण प्रमाण दृष्टि से कहा (क्योंकि वस्तु प्रमाण स्वरूप है अर्थात् अनेकान्तात्मक है इसलिये) अब अनेकान्त ज्ञान की शद्धि के लिये वस्तु (की अनेकान्तात्मक) स्थिति कही जाती है।
प्रमाण - श्री समयसार कलश नं. २४७।
वस्तु की अनेकान्तात्मक स्थिति स्यादरितच नास्तीति च नित्यमनित्यं त्वनेकमेकं च ।
तदतच्चेति चतुष्टययुग्मैरिव गुम्फितं वस्तु ॥ २६ ॥ अर्थ - स्यात् अस्ति-स्यात् नास्ति, स्यात् नित्य-स्यात् अनित्य, स्यात् एक-स्यात् अनेक, स्यात् तत्-स्यात् अतत् इस प्रकार इन चार युगलों के द्वारा ही मानो वस्तु गुम्फित हो रही है। ( अर्थात् इन धर्मों से वस्तु गुंथी हुई है।
इसी का स्पष्टीकरण अथ ताथा यदरित हि तदेव जास्तीति तच्चतुष्कं च ।
द्रव्येण. क्षेत्रेण च कालेज तथाथ वापि भावेन ॥ २६३ ।। अर्थ - उसी का खुलासा करते हैं कि जो कथंचित् ( किसी स्वरूप से ) है, वही कथंचित् नहीं भी है। इसी प्रकार जो कथंचित् नित्य है, वही कथंचित् अनित्य भी है। जो कथंचित् एक है, वही कथंचित् अनेक भी है। जो कथंचित् वही है, वहीं कथंचित् वही नहीं भी है। इसी प्रकार ये चारों ही युगल द्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव की अपेक्षा से होते हैं। ___ व्याख्या - जो वस्तु अपने सामान्य स्वरूप से, द्रव्य से, क्षेत्र से , काल से, भाव से अस्ति रूप है वही वस्तु उसी समय अपने विशेष स्वरूप से, द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से, भाव से नास्ति रूप भी है। अथवा इसको यों भी कह सकते हैं कि जो वस्तु अपने विशेष स्वरूप से द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से 'अस्ति' है वह ही अपने सामान्य स्वरूप से द्रव्यक्षेत्र-काल-भाव से 'नास्ति'रूप है। उसी समय वही अपने सामान्य स्वरूप से, द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से, भाव से नित्य है और वहीं वस्तु उसी समय अपने विशेष स्वरूप से, द्रव्य से, क्षेत्र से , काल से, भाव से अनित्य रूप भी है। उसी समय वही वस्तु अपने सामान्य स्वरूप से, द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से, भाव से एक रूप है और वही वस्तु उसी समय अपने विशेष रूप से, द्रव्य से, क्षेत्र से , काल से, भाव से अनेक रूप है। उसी समय वही वस्तु अपने सामान्य स्वरूप से - द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से, भाव से तत् रूप हैं और वही वस्तु उसी समय अपने विशेष स्वरूप से, द्रव्य से, क्षेत्र से,
काल से भाव से अतत् स्वरूप है। इस प्रकार एक ही वस्तु को एक ही समय में देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि वह ./उपरोक्त चार युगलों से गुम्फित है। इसलिये वस्तु ही अनेकान्तात्मक है, अनेक उपरोक्त चार युगल, अन्त = धर्म, आत्मक - स्वरूप। ऐसी अनेकान्तात्मक वस्तु का बोध अनेकान्त दृष्टि वाले किसी जैन को ही हो सकता है ( आगे श्लोक ३०८) और अनेकान्त स्वरूप वस्तु को निरूपण करनेवाले स्याद्वाद आगम की कृपा से। जैनधर्म को छोड़कर शेष सब धर्मों ने वस्तु को उपरोक्त में से किसी एक धर्म रूप सर्वथा एकान्त माना है। जैसे साख्य का कहना है कि वस्तु नित्य ही है। बौद्ध का कहना है कि वस्तु अनित्य ही है। इसलिये अन्य मतों को एकांती कहते हैं। जैनधर्म अनेकांती है। यह ध्यान