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प्रथम खण्ड/प्रथम पुस्तक
अनया प्रक्रियया किल बोद्भव्य कारणं फलं चैत ।
यरमादेवास्य सतस्तद्वयमपि भवत्येतत् ॥ १९७ ।। अर्थ-इसी प्रकार ऊपर कही हुई प्रक्रिया (रीति) के अनुसार कारण और फल भी उसी कथंचित् नित्य पदार्थ के घटते हैं क्योंकि ये दोनों ही सत् पदार्थ के ही हो सकते हैं।
आस्तामसदुत्पादः सतो विनाशस्तदन्वयादेशात् ।
स्थूलत्वं च कृशत्वं न गुणस्य च निजप्रमाणत्वात् ॥ १९८॥ अर्थ-द्रव्य दृष्टि से गुणों में असत् की उत्पत्ति और सत् का विनाश तो दूर रहा परन्तु उनमें अपने प्रमाण से स्थूलता और कृशता (दुर्बलता) भी नहीं आती। ___ भावार्थ-अगुरुलघु गुण के कारण गुण तो त्रिकाल एक रूप पूर्ण शक्ति लिये हुवे रहता है। पर्याय में जो कमज्यादा जानने की सामर्थ्य की उद्भूति अनुभूति होती है वह स्वकाल की योग्यता से होती है। ज्ञानावरणीय के कारण से नहीं जैसा कि पहले श्लोक नं.१९५ में उत्तर दिया है। ज्ञानावरणीय निमित्त रूप से उपस्थित अवश्य है।जब परिशमन करेगा तो उस पर आरोप आ जायेगा। वह भी विभाव में अनित्यता दिखलाने के लिये। ज्ञानावरणीय के कारण ज्ञान कम होता है इसको आगे नयाभास कहेगा। जैनधर्म में प्रत्येक द्रव्य का स्वभाव या विभाव परिणमन स्वकाल की योग्यता से होता है। किसी भी पर-द्रव्य के कारण नहीं। वस्तु त्रिकाल पूर्ण स्वतन्त्र है। कैसी सुन्दर वस्तुस्थिति है ऐसी अलौकिक वस्तुस्थिति समझाने वाले सद्गुरुदेव की जय ! जय !! जय !!!
नोट-बस्तु निरूपण महा अधिकार में पर्याय का वर्णन करने वाला चौथा अवान्तर अधिकार समाप्त हुआ।
पांचवां अवान्तर अधिकार
उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य का वर्णन १९९ से २६० तक इति पर्यायाणामिह लक्षणमुक्तं यथास्थितं चाथ ।
उत्पादादित्रयमपि प्रत्येकं लक्ष्यते यथाशक्ति ॥ १९९।। अर्थ-इस प्रकार पर्यायों का लक्षण जैसा कुछ था कहा गया। अब उत्पाद-व्यय-धौव्य का भिन्न-भिन्न स्वरूप यथाशक्ति कहा जाता है।
उत्पाटस्थितिभङ्गाः पर्यायाणां भवन्ति किल न सतः ।
ते पर्याया द्रव्यं तस्माद्रव्यं हि तन्नितयम् ॥ २० ॥ अर्थ-उत्पाद स्थिति भंग ये तीनों ही पर्यायों के होते हैं, पदार्थ के नहीं होते और उन पर्यायों का समूह द्रव्य कहलाता है इसलिये वे तीनों मिलकर द्रव्य कहलाते हैं।
भावार्थ-यदि उत्पाद व्यय पदार्थ के माने जावें तो पदार्थ का ही नाश और उत्पाद होने लगेगा, परन्तु यह पहले कहा जा चुका है कि न तो किसी पदार्थ का नाश होता है और न किसी नवीन पदार्थ की उत्पत्ति ही होती है। इसलिये ये तीनों पदार्थ की अवस्थाओं के भेद हैं और वे अवस्थायें मिलकर ही द्रव्य कहलाती हैं। इसलिये तीनों का समुदाय ही द्रव्य का पूर्ण स्वरूप है।
तत्रोत्पादोऽवस्था प्रत्यर्प परिणतस्य तस्य सतः।
सदसद्भावनिबद्धं तदतद्भावत्वतन्जयादेशात् ॥ २०१॥ अर्थ-उन तीनों में परिणमन शील द्रव्य की नवीन अवस्था को उत्पाद कहते हैं। यह उत्पाद भी द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से सत् और असत् भाव से विशिष्ट है।