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ग्रस्थराज श्री पञ्चाध्यायी
कहते हैं। इसलिये ज्ञान गुण में तरतमता होने पर भी उसके अंशों का विनाश नहीं होता है। विशेष में गुणांशों की हानि वृद्धि होने पर भी सामान्य ( गुण) में उतने के उतने अंश बनाये रखना अगुरुलघु गुण का काम है। यह प्रत्यक्ष केवली गम्य है। जीव के केवली होने पर सब प्रगट हो जाते हैं इस अनुमान से यह पता चलता है कि गुण में थे तो पर्याय में प्रकट हुये। कहीं से आ थोड़ा ही गये हैं। इस स्वानुभव अनुमान से प्रत्यक्ष ख्याल आता है।
शंका १९३-१९४ नजु चैवं सत्यर्थादुत्पादादिनयं न संभवति ।
अपि नोपादान किल कारण न फलं तटनन्यात् ॥ १९ ॥ अर्थ-किसी शक्ति का कभी नाश भी नहीं होता है और न नवीन कछ उत्पत्ति ही होती है। यदि ऐसा तो गुणों में उत्पाद-व्यय-धौव्य नहीं घट सकते हैं, न उपादान (ध्रुव) बनता है, न कोई किसी का कारण ही बन सकता है न फल ही कुछ हो सकता है क्योंकि उपर्युक्त कथन से तुम गुणों को सदा एक जैसा ही मान चुके हो।
शंका चालू अपि च गुणः रवांशाजामपकर्षे दुर्बलः कथं न स्यात् ।
उत्कथं बलवानति दाबाऽयं दुर्जयोमहानिति चेत् ॥ १९॥ अर्थ-दूसरी बात यह है कि हर एक गुण के अंशों की कभी न्यूनता भी प्रतीत होती है, ऐसी अवस्था में गुण दुर्बल (सूक्ष्म-पतला) कैसे नहीं होता है? और कभी गुण में अधिकता भी प्रतीत होती है ऐसी अवस्था में वह बलवान (सशक्त-मोटा) कैसे नहीं होता है ? यह एक महान दोष है। इसका निराकरण कुछ कठिन है ?
समाधान १९५ से १९८ तक तन्न यतः परिणमि दव्यं पूर्व निरूपितं सम्यक् ।
उत्पादादित्रयमपि सुघटं नित्येऽथ नाप्यानित्येऽर्थे ॥ १९५॥ अर्थ-उपर्युक्त जो शंका की गई है वह निर्मूल है क्योंकि यह पहले (नं.८९,१७८ में ) अच्छी तरह कहा जा चुका है कि द्रव्य परिणमन शील है। इसलिये नित्य पदार्थ में ही उत्पाद,व्यय, ध्रौव्य अच्छी तरह घटते हैं। अनित्य पदार्थ में नहीं घटते।
भावार्थ-गुण में पूरा ज्ञान स्थित होगा तभी तो पर्याय में हीनाधिक परिणमन करेगा। वह हीनाधिक परिणमन ज्ञानावरण कर्म या अन्य निमित्तों के कारण नहीं होता है किन्तु वस्तु के स्वतः सिद्ध परिणमन स्वभाव के कारण होता है और स्वकाल की योग्यता से होता है ऐसा ग्रन्थकार का आशय है इसी को अनवस्थित कहते हैं। दूसरा आशय उनका ऐसा है कि पर्याय में हीनाधिक होने पर भी वस्तु में गुण रूप से हर समय पूरा स्थित रहता है। इसी को अवस्थित या नित्य कहते हैं। यदि यह न माना जायेगा तो परिणामन किसके आधार पर होगा। मोक्ष का पुरुषार्थ ज्ञानी किसके आश्रय से करेंगे। गुण में भरा है तो पर्याय में पुरुषार्थ के द्वारा प्रगट किया जाता है।
जाम्बूलटे यथा सति जायन्ते कुण्डलादयो भावाः।
अथ सत्सु तेषु नियमादुत्पादादित्रयं भवत्येव ॥ १९६ ।। अर्थ-सोने की सत्ता मानने पर ही तो उसमें कुण्डलादिक भाव होते हैं और उन कुण्डलादिक भावों के होने पर उनमें उत्पादादिक घटते ही हैं।
भावार्थ-जिस समय सोना कुण्डलाकार हो जाता है उस समय सोने में पहली पांसे रूप पर्याय का विनाश होकर कुण्डल रूप पर्याय की उत्पत्ति होती है। सोना दोनों ही अवस्था में है। इसलिये सोने में उत्पादादि जय तो घट जाते हैं परन्तु सोने के प्रदेशों में वास्तव में किसी प्रकार की नवीन उत्पत्ति अथवा नाश नहीं होता है। केवल आकार से आकारान्तर होता है। यदि सोने को अनित्य ही मान लिया जाय तो फांसे के नाश होने पर कुण्डल किसका बने ? इसलिये नित्य पदार्थ में ही उत्पादादि तीनों घटते हैं। अनित्य में नहीं।