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प्रथम खण्ड/प्रधाद पु
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भावार्थ-उपर्युक्त तीनों श्लोकों में इस बात का निषेध किया गया है कि उत्पाद, व्यय,धौव्य सत् से भिन्न हैं अथवा सत् के एक-एक भाग से होने वाले अंश हैं। साथ ही यह बतलाया गया है कि तीनों ही सत् स्वरूप हैं और तीनों ही एक साथ होते हैं। परन्तु जिसकी विवक्षा की जाय अथवा जिसका लक्ष्य बनाया जाय सत् उसी स्वरूप है। सत् ही स्वयं उत्पाद स्वरूप है, सत् ही व्यय स्वरूप है और सत् ही धौव्य स्वरूप है।
संदृष्टिम॒द्रव्यं सता घटेनेह लक्ष्यमाणं सत् ।
केवलमिह घटमात्रमसता पिण्डेन पिण्डमात्र स्यात ॥ २२३॥ अर्थ-दृष्टान्त के लिये मिट्टीद्रव्य है। जिस समय वह मिट्टी विद्यमान घट रूपकर लक्ष्य होती है उस समय वह केवल घट-मात्र है और जिस समय वह अविद्यमान पिण्ड रूप का लक्ष्य होती है, तब पिण्ड मात्र है।
यदि वा तु लक्ष्यमाणं केवलमिह मृच्च मृत्तिकात्वेन ।
एवं चैकस्य सतो व्युत्पादादित्रयश्च तनांशाः || २२४ ॥ अर्थ- यदि वह मिट्टी मिट्टीपने का ही केवल लक्ष्य बनाई जाती है तब वह केवल मिट्टी मात्र है। इस प्रकार एक ही सत् (द्रव्य) के उत्पाद, व्यय, धौव्य ऐसे तीन अंश होते हैं।
न पुलः सतो हि सर्गः केनचिदंशैकभागमात्रेण |
संहारो वा धौव्यं वृक्षे फलपुष्पपत्रवन्न स्यात् ॥ २२५ ॥ अर्थ-ऐसा नहीं है कि सत (द्रव्य)का ही किसी एक भाग से उत्पाद हो, और उसी का किसी एक भाग से व्यय हो और उसी का किसी एक भाग से ध्रौव्य रहता हो, जिस प्रकार कि वक्ष के एक भाग में फल हैं तथा पुष्य हैं और उसके एक भाग में पत्ते हैं किन्तु ऐसा है कि सत् ही उत्पादरूप है, सत् ही व्ययरूप है, और सत् ही धौव्य स्वरूप है। आशय यह है कि जैसे वृक्ष में फल, फूल और पते पृथक्-पृथक रहते हैं वैसे ही सत् में उत्पाद, व्यय और धौव्य पृथक्-पृथक् नहीं रहते।
शंका ननु चोत्पादादित्रयमंशानामथ किमंशिनो वा स्यात् ।
अपि किं सटशमानं किमांशमात्रमसदस्ति पृथगिति चेत् ॥ २२६ ॥ अर्थ-क्या उत्पादादिक तीनों पृथक्-पृथक् अंशों के होते हैं ? अथवा अंशी के होते हैं ? अथवा सत् रूप भिन्नभिन्न अंश मात्र हैं? अथवा असत्-अंश रूप भिन्न-भिन्न हैं।
समाधान २२७-२२८ तन्न यलोऽनेकान्तो बलवानिह रखनु न सर्वथैकान्तः ।
सर्वं स्यादविरुद्धं तत्पूर्व तद्विना विरुद्धं स्यात् ॥ २२७॥ अर्थ-उपर्युक्त शंका ठीक नहीं है क्योंकि यहाँ पर ( जैन दर्शन में ) नियम से अनेकान्त ही बलवान है। सर्वथा एकान्त नहीं। यदि ऊपर किये हुये प्रश्न अनेकान्त दृष्टि से किये गये हैं तो सभी कथन अविरुद्ध है। किसी दृष्टि से कुछ भी कहा जाय, उसमें विरोध नहीं आ सकता और अनेकान्त को छोड़कर केवल एकान्त रूप से ही उपर्युक्त प्रश्न किये गये हैं तो अवश्य ही एक दूसरे के विरोधी हैं इसलिये अनेकान्त पूर्वक सभी कथन अविरुद्ध हैं और वही कथन उसके बिना विरुद्ध है।
केवलमंशानामिह नाप्युत्पादो व्ययोऽपि न धौव्यम् ।।
नाप्यंशिनस्त्रयं स्यात् किमुताशेजांशिनो हि तत्रितयम् ॥ २२८ ॥ अर्थ-केवल अंशों के ही उत्पाद व्यय धीव्य नहीं होते हैं और न केवल अंशी के ही तीनों होते हैं किन्तु अंशी के अंश रूप से उत्पादादिक तीनों होते हैं।