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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
यटि वा शुद्धत्वनयाचाप्युत्पादो व्ययोऽपि न धौव्यम् ।
गुणरच पयंय इति वाम 'स्याच्य केवल सादेति ॥ २१६॥ अर्थ-अथवा भेद निरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिक नय से न कोई उत्पाद है न व्यय है,नधौव्य है, न गुण है, और न पर्याय है। केवल अखण्ड सत् मात्र ही वस्तु है (यह दृष्टि वस्तु में भेद स्वीकार नहीं करती - भावार्थ अन्त में 'दृष्टि परिज्ञान' में देखिये )
अयमों यदि भेटः स्यादुन्मजति तदा हि तन्नितयम् ।
अपि ततत्रितयं जिमज्जति यदा निमज्जति स मूलतो भेदः ॥२१७ ॥ अर्थ-उपर्युक्त कथन का यही सारांश है कि यदि भेद बुद्धि रक्खी जाती है तब तो उत्पाद, व्यय, धौव्य तीनों ही सत् के अंश रूप से प्रकट हो जाते हैं और यदि मूल से भेद बुद्धि को ही दूर कर दिया जाय, तब तीनों ही सन्मात्र वस्तु में लीन हो जाते हैं। ____ भावार्थ-भेद सापेक्ष पर्यायार्थिक नयसे वही सत् उत्पाद, व्यय, धौव्य स्वरूप है और भेद निरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिकनय से वही सत् केवल सन्मात्र ही प्रतीत होता है।
शंका ननु चोत्पादध्वंसौ द्वावग्यात्मको भवेतां हि ।
धौव्यं त्रिकालविषयं तत्कथमंशात्मक भवेदिति चेत् ॥ २१८ ॥ अर्थ-शंकाकार कहता है कि उत्पाद और ध्वंस (व्यय)ये दोनों ही अंशात्मक-अंश स्वरूप रहो परन्तु धौव्य तो सदा रहता है वह किस प्रकार अंश रूप हो सकता है?
समाधान २१२ से २२५ तक नैव यतस्त्रयोंशा: स्वयं सदेवेति वस्तुतो न सतः ।
नैवार्थान्तरवदिदं प्रत्येकमनेकमिह सदिति ॥ २१९ ॥ अर्थ-ऊपर की हुई शंका ठीक नहीं है क्योंकि ये तीनों ही अंश स्वयं सत् स्वरूप हैं। वास्तव में सत् के नहीं हैं। जैसे पदार्थान्तर पृथक-पृथक होने से अनेक होते हैं उस प्रकार ये पृथक्-पृथक् होकर अनेक नहीं हैं, किन्तु स्वयं सत् ही प्रत्येक अंशरूप है। ___ भावार्थ-उत्पाद व्यय धौव्य तीनों ही सत् के उस प्रकार अंश नहीं हैं जिस प्रकार कि वृक्ष के फल, पुष्प, पत्ते आदि होते हैं किन्तु स्वयं सत् ही उत्पादादि स्वरूप हैं।
__तचैतदुदाहरणं यद्युत्पादेन लक्ष्यमाणं सत् ।
उत्पादेन परिणतं केवलमत्पादमात्रमिह वस्तु ॥ २२० ।। अर्थ-इस विषय में यह उदाहरण है कि यदि सत् उत्पाद का लक्ष्य बनाया जाता है तब उत्पाद रूप से परिणमन करता हुआ वह केवल उत्पाद मात्र है।
यदि वा व्ययेन नियतं केवलमिह सदिति लक्ष्यमाणं स्यात् ।
व्ययपरिणतं च सदिति व्ययमात्रं किल कथं हि तन्न स्यात् ॥ २२१॥ अर्थ-अथवा यदि वह सत् केवल व्यय का लक्ष्य बनाया जाता है तब व्यय रूप से परिणमन करने पर वह सत् केवल व्यय मात्र क्यों नहीं होगा, अवश्य होगा।
धौव्येण परिणतं सद्यटि वा ध्रौव्येण लक्ष्यमाणं स्यात्
उत्पादव्ययवदिदं स्यादिति तद् ध्रौव्यमानं सत् ॥ २२२ ।। अर्थ-धौव्य परिणाम को धारण करने वाला सत् यदि धौव्य का लक्ष्य बनाया जाता है, तब उत्पाद व्यय के समान । वह सत् धौव्य मात्र है।