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प्रवचन-२६ मा. सद्गृहस्थ बनना यानी गुणवान होना। 'सत्' यानी गुण।'
गृहस्थ तो आप हो ही। अब आपको सद्गृहस्थ बनना
है.....गुणों से युक्त बनना है। • पैसे में सुख मानते हो तो जरा कभी जाकर पैसेवालों से पूछ ।
तो लो कि वे लोग सुख के सरोवर में तैर रहे हैं या दु:ख के सागर में डूबे जा रहे हैं। अयोग्य को योग्य बनाने की रीत भी सीखने जैसी चीज है। नालायक को यदि नालायक ही रहने दें तो इसमें क्या बडा तीर मारा....? अरे....बात तो तब बने कि जब तुम नालायक को भी 6 लायक बना दो! इसी में तुम्हारी समझदारी समायी हुई है। बाहर का जरातरा कुछ देखकर ही बड़बड़ करने मत लग जाओ!
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प्रवचन : २६
महान श्रुतधर आचार्यदेव श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी ने धर्म के दो प्रकार बताये : गृहस्थधर्म और साधुधर्म । यतिधर्म कहो, मुनिधर्म कहो, साधुधर्म कहो, एक ही बात है। गृहस्थधर्म भी दो प्रकार का बताया है : सामान्य गृहस्थधर्म और विशेष गृहस्थधर्म। सामान्य गृहस्थधर्म यानी सभी सज्जन गृहस्थों के लिए 'कॉमन'-साधारण क्रियात्मक धर्म। विशेष गृहस्थधर्म होता है : सम्यक् दर्शन के साथ अणुव्रत, गुणव्रत शिक्षाव्रत आदि व्रत-नियमों को स्वीकार करने के रूप में। सद्गृहस्थ बनिये :
आज हम सामान्य गृहस्थधर्म की प्राथमिक भूमिका पर विचार करेंगे। एक बात याद रखना, अब अपने जो प्रवचन होंगे वे मात्र जैन या श्रावकों के लिये ही नहीं होंगे, परन्तु सभी गृहस्थों के लिए उपयोगी बातें कही जायेंगी। जो जैन नहीं हैं, जो श्रावक नहीं हैं, वैसे गृहस्थों के लिए भी ये बातें उपयोगी एवं आवश्यक होंगी। गृहस्थ को सद्गृहस्थ बनने के लिए ये सामान्य गृहस्थधर्म की बातें अत्यंत उपयोगी सिद्ध होंगी। आप लोग घर में रहते हैं इसलिए गृहस्थ तो हैं ही, परन्तु जीवन को आनन्दमय और सुखमय बनाने के लिए
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