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पर्चासागर [१५]
१२-चर्चा तेरहवीं प्रश्न--ऊपर यह बताया जा चुका है कि प्रतिदिन सबसे पहले वन करना चाहिये । देवदर्शन। करनेके पहले अन्य कार्य नहीं करना चाहिये । परन्तु वेववर्शन किये बिना हो जो भोजनादि कर लेते हैं उनके । लिये शास्त्रोंमें क्या कहा है तथा उन्हें कैसा समलना चाहिये ।
समाधान-जिस गांव वा शहरमें भगवान् अरहन्तदेवका जिनालय हो और वहाँ पर रहनेवाला श्रावक श्रावक होकर भी यदि बिना भगवान के दर्शन किये भोजन करे तो उसको जैनशास्त्रों में मियादृष्टो बतलाया है। उसको जैनधर्मका श्रद्धान करनेवाला कभी नहीं कहना चाहिये । जैनशास्त्रों में उसको धर्मभ्रष्ट बतलाया है । लिखा भी है
चेयाले जिहठाणे सावय अदिट्ट भोयणं कुणई । सो सुठ मिच्छाइट्ठी भट्ठो जिनसासणे समये ॥ १३ ॥
१४-चर्चा चौदहवीं प्रश्न--केवली भगवान्के नौ परम केवललब्धियां होती हैं उनमें वर्शनावरण कर्मके क्षयसे अनंतदर्शन प्राप्त होता है. ज्ञानावरणके क्षयसे अनंत ज्ञान प्रगट होता है. दानांतरायके क्षयसे क्षायिक दान होता है. लाभांतरायके क्षयसे क्षायिकलाभ, भोगांतरायके क्षयसे क्षायिक भोग, उपभोगांतरायके क्षपसे क्षायिक उपभोग, वीयांतरायके क्षयसे क्षायिक वीयं प्रगट होता है, दर्शनमोहनीय कर्मके क्षयसे क्षायिकसम्यक्त्व, चारित्र मोहनोय कर्म के क्षयसे क्षायिक चारित्र प्राप्त होता है। इसप्रकार केवलो भगवान्के नव क्षायिक परम केवललब्धियां प्रगट होती हैं। अब इनमें प्रश्न यह है कि केवलो भगवान् बान क्या करें और भोगोपभोगके सेवन में । १. धर्मकी नो शास्त्रोंके आधारपर है। जब शास्त्रों में सबसे पहले देवदर्शन करना बतलाया है और फिर भी जो देवदर्शन
नहीं करता वा उसकी आवश्यकता नहीं समझता तो समझना चाहिये कि वह जैनशास्त्रोंको मानता ही नहीं । यदि वह जैन. पास्त्रोंको मानता और उनका प्रदान करता तो वह देवदर्शन अवश्य करता। परन्तु वह देवदर्शन नहीं करता और न उसकी आवश्यकता समझता है तो यह निश्चित है कि उसके उन शास्त्रोंका श्रद्धात नहीं है तथा श्रद्धान न होनेसे हो वह मिथ्यादृष्टी और धर्मभष्ट बतलाया गया है।