Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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[ ५ ] से वे दोनों मर कर हरिवास युगल क्षेत्र में युगल योनि में उत्पन्न हुए। इधर राजा और वनमाल की अकस्मात् मृत्यु हुआ देख वीर का चित्त स्थिर हो गया कि इन्होंने किया जैसा ही पाया । वीर ने संसार का स्वरूप देख तापसी दीक्षा ले ली और तप करता हुआ वह मर कर देव योनि में उत्पन्न हुआ फिर उसने ज्ञान लगाकर देखा तो राजा और वनमाला युगल मनुष्य पने पैदा हुए और वहाँ से मर कर देव होंगे । इस हालत में देव ने अपना बदला लेने को अर्थात् उनको भविष्य में कष्ट पहुँचाने को उन दोनों के आयुः दह का संक्रमण कर चम्पानगरी में लाया वहाँ का राजा चण्डकीर्ति अपुत्रिया मर गया था वहाँ के लोग इस बात का विचार कर रहे थे कि अपने नगरका राजा कौन होगा ? उस समय देवता ने उन लोगों को कहा कि यह हरि राजा औरहरिणी राणी तुमको दिये जाते हैं यही तुम्हारा राजा होगा पर एक बात याद रखना कि तुम लोग इन राजा-राणी को फलाहर के साथ मांस मदिरा भी खिलाना और भोग विलास में खूब सहायता करते रहना तब ही तुम लोग सुखी रहोगे । इत्यादि जैसे देवताने कहा वैसे ही नगर के लोगों ने किया जिससे वह राजा एवं राणी मर कर नरक में जाकर घोर दुखों का अनुभव करने लगे इति उस हरि राजा की सन्तान हरिवंश के नाम से प्रसिद्ध हुई । इस हरि वंश में बीसवें मुनिसुव्रत तीर्थकर हुए और आगे चलकर राज यादुसे हरिवंश का नाम यादुवंश प्रचलित हुआ जिसका थोड़ा सा परिचय राजा वसु के अधिकार में करवाया जायगा । - पर्वत और महाकाल देव के द्वारा पशुबध रूपी यज्ञ का प्रचार जिस समय सम्राट रावण दिग्विजय कर वापिस आ रहा था मार्ग में भय भ्रांत हुए नारदजी ये रावण ने पूछा कि आप ऐसे क्यों १ नारद ने कहा कि राजपुर का राजा मरुत मांस पीपासु ब्राह्मणों की बहकावट में आकर पशुवध रूप यज्ञ करवाता था उस समय मैं वहां चला गया राजा को उपदेश दिया इतने में ब्राह्मण लोग लाठी पत्थर से मारने के लिये मेरे पिच्छे हो गये मैं वहां से भागकर आपके पास आया हूँ आप उन पशुओं को अभयदान दिला कर अहिंसा का प्रचार करें इत्यादि । इस पर रावण नारदजी को साथ लेकर राजपुर गये और मरुत राजा को मधुर बचनों से समझा कर एवं यज्ञ बंद करवा कर राजा को हिंसा का उपासक बनाया । कारण रावण की आज्ञा सर्वत्र मान्य थी यही कारण है कि जैन राजाओं को ब्राह्मणोंने राक्षस के नाम से लिख मारा है कि हमारे यज्ञों को राक्षस विध्वंस कर डालते थे वे राक्षस थे अहिंसा धर्म के उपासक जैन राजा । एक समय सम्राट् रावण ने नारद से पूछा कि इस प्रकार हिंसामय यज्ञ किसने चलाये ? उत्तर में नारद ने कहा कि सुक्तमुता नगरी में अभिचन्द नामक राजा राज्य करता था जिसके एक वसु नाम का पुत्र था वह न्यायी सत्यवक्ता बड़ा ही धर्ममात्मा था उस नगरी में खीरकदम्ब उपाध्याय भी रहता था जिसके पर्वत नाम का पुत्र था मैं वसुकुवर और पर्वत ये तीनों उपाध्यायजी के पास पढ़ते थे एक दिन हम तीनों छत पर सो रहे थे निद्रा भी आ गई पर उपाध्यायजी जागृत थे उस समय आकाश से दो चारण मुनि जा रहे थे जो ज्ञानी थे उन्होंने कहा कि इन तीनों विद्यार्थियों में दो नरक गामी है और एक स्वर्ग गामी है। उपाध्याय जी ने उनकी परीक्षार्थ लोट (आटा ) के तीन कुर्कट बना कर तीनों को दिया कि कोई न देखे वहां मार आना । बस ! पर्वत और वसु तो जंगल में जाकर कोई नहीं देखा वहां पीठ के कुर्कट मार आये पर मैंने सोचा कि दूसरा नहीं तो मैं एवं कुर्कट तो देखते हैं शायद मैं आखें बन्द क लूँ तो भी ईश्वर ज्ञानी तो सर्वत्र देखते हैं अतः कुर्कट को लेकर वापिस श्राया उपाध्यायजी ने उन तीनों की परीक्षा करली कि ठीक दो नरक और एक नारद स्वर्ग जाने वाले हैं।
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नारद कहता है कि मैं एक समय सुक्तमुता नगरी में गया तो पर्वत अपने शिष्यों को पढ़ा रहा था Jain E ऋग्वेद में एक अति श्रई कि " अजर्यव्यमिति" इसका पर्वत ने अर्थ किया कि अज यानि लाग चकरा.org