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अनेकान्त 63/1 जनवरी-मार्च 2010
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को कच्छप ने अपने ऊपर धारण कर रखा है। यही बात आचार्य श्री ने भी कहा है कि उत्कृष्ट सज्जन विमुख होने पर भी परोपकार के कार्य में समर्थ रहता है, क्योंकि पीठ देने वाला कूर्म (कच्छप) क्या गुरुतर पृथिवी के उद्धार रूप कार्य को करने में समर्थ नहीं है ?
'पराड्. मुखोऽप्येषु परः परमात्मा परोपकारव्यवहारदक्षः । किं दत्तपृष्ठो हि गरिठगोत्रा प्रोद्धारधर्मप्रवणो न कूर्मः ॥"
(ग) सर्प
सर्प का वर्णन आचार्य श्री ने कृतघ्नता के अर्थ में किया है। जैसा कि आपने लिखा है कि, अत्यन्त नीच मनुष्य का उपकार करना दोष प्राप्ति की संभावना को पूर्ण करने के लिए होता है। जैसे कि पृथ्वी तल पर श्रेष्ठ सर्पों के पूज्य नागराज को दूध पिलाना विष बढ़ाने के लिए होता है।
"सुरंगेकस्य कृतोपराकारो दोषागमाशंसनपूरणाय ।
न नागनागेशपयः प्रपानं भवेत्कुभारे विषवर्द्धनाय ।"
कुलीन राजा का वर्णन करते हुए आचार्य श्री ने लिखा है कि, जिस प्रकार अच्छी बीन से सहित सपेरा सांपों को पकड़ लेता है उसी प्रकार कुलीन राजा व्याभिचारियों के समूह को पकड़ लेता है। इसी प्रकार शेषनाग के कान (2/67) आदि तथा सर्पिणी (3/74) का भी वर्णन आचार्य श्री ने किया है।
(घ) मूषक
मूषक प्रथम बन्दनीय देवता श्री गणेश का वाहन है। किन्तु अत्यंत दुष्ट प्रकृति का जीव है। यह कृषक परिवार को काफी नुकसान पहुँचाता है। आचार्य श्री पिशुन के अर्थ में इसका वर्णन करते हुए कहते हैं कि, जिस प्रकार पिशुन- (दुर्जन) अत्यंत दोष को उत्पन्न करने वाला होता है, उसी प्रकार मूषक (चूहा ) भी सुदूषक है।
'रन्ध्रानुरागी पिशुनो विभाति हि वात्यन्तकालो बहुधान्यघातकः । द्रोही तथ निष्कपटस्य विष्टपे सुदूषकोऽसवौ तु यथा सुमूषकः ॥"
(क) मगरमच्छ
लम्बी दाढों वाला मगरमच्छ जलीय प्राणी है। आचार्य श्री इसका वर्णन 'जिनेन्द्र' भगवान के आगमन के समय करते हुए कहते हैं कि, जिनेन्द्र के आने पर समुद्र के भीतर मगरमच्छ आदि पराक्रमपूर्वक नृत्य करने लगे।
"जिनेन्द्रदेवस्य समागतस्य प्रमोदतो वा किल मत्स्यकाद्याः । नृत्यन्ति सर्वेऽपि मुहुर्महुश्च समुद्रमध्येऽपि पराक्रमेण ॥
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(ङ) भ्रमर
नवीन कलियों के सर्वस्व का पान करने वाला भ्रमर संस्कृत साहित्य के कवियों के लिए अछूता नहीं रहा है। कालिदास आदि समस्त कवियों ने भ्रमर को अपने काव्यों का विषय बनाया है। कालिदास का दुष्यन्त तो भ्रमर के साथ ईर्ष्या भाव स्थापित करते हुए शकुन्तला विरह से व्यथित होकर भ्रमर को 'धन्य' मानता है। रानी त्रिशला के हस्त कमलों