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महानिशीथ-५/-/६९२
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जिसमें शत्रु और मित्र पक्ष की तरफ समान भाव वर्तता हो । अति सुनिर्मल विशुद्ध अंतःकरणवाले साधु हो, आशातना करने में भय रखनेवाले हो, खुद के और दुसरो के आत्मा का अहेसान करने में उद्यमवाले हो, छ जीव निकाय के जीव पर अति वात्सल्य करनेवाले हो, सर्व प्रमाद के आलम्बन से विप्रमुक्त हो, अति अप्रमादी विशेष तरह से पहचाने हए, शास्त्र के सद्भाववाले, सैद्र और आर्तध्यान रहित, सर्वथा बल, वीर्य, पुरुषकार, पराक्रम को न गोपनेवाले एकान्त में साध्वी के पात्रा, कपड़े आदि वहोरे हो, उसका भोग न करनेवाले, एकान्त धर्म का अंतराय करने में भय रखनेवाले, तत्व की ओर रूचि करनेवाले, पराक्रम करने की रूचिवाले, एकान्त में स्त्रीकथा, भोजनकथा, चोरकथा, राजकथा, देशकथा, आचार से परिभ्रष्ट होनेवाले की कथा न करनेवाला, उसी तरह विचित्र अप्रमेय और सर्व तरह की विकथा करने से विप्रमुक्त एकान्त में यथाशक्ति १८ हजार शीलांग का आराधक समग्र रात-दिन तत्परता से शास्त्र के अनुसार मोक्षमार्ग की प्ररूपणा करनेवाले, कईं गुण से युक्त मार्ग में रहे, अस्खलित, अखंड़ित शीलगुण को धारक होने से महायशवाले, महास्तववाले, महानुभाव ज्ञान, दर्शन और चारित्रके गुणयुक्त ऐसे गण को धारण करनेवाले आचार्य होते है । वैसे गुणवाले आचार्य की निश्रा में ज्ञानादिक मोक्षमार्ग की आराधना करनेवाले को गच्छ कहा है ।
[६९३] हे भगवंत् ! क्या उसमें रहकर इस गुरुवास का सेवन होता है क्या ? हे गौतम ! हा, किसी साधु यकीनन उसमें रहकर गुरुकुल वास सेवन करते है और कुछ ऐसे भी होते है कि जो वैसे गच्छ में वास न करे । हे भगवंत ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि कोई वास करे और कोई वास नहीं करते? हे गौतम ! एक आत्मा आज्ञा का आराधक है और एक आज्ञा को विराधक है । जो गुरु की आज्ञा में रहा है वो-सम्यग्दर्शन-ज्ञान चारित्र का आराधक है, और वो हे गौतम ! अत्यंत ज्ञानी कई प्रकार के मोक्ष मार्ग में उद्यम करनेवाले है, जो गुरु की आज्ञा के अनुसार नहीं चलता, आज्ञा की विराधना करता है, वो अनन्तानुबँधी क्रोध, माया, मान, लोभवाले चार कषाय युक्त हो वो राग, द्वेष, मोह और मिथ्यात्व के पूंजवाले होते है, जो गहरे राग, द्वेष, मोह मिथ्यात्व के ढ़गवाले होते है वो उपमा न दे शके वैसे घोर संसार सागर में भटकते रहते है । अनुत्तर घोर संसार सागर में भटकनेवाले की फिर से जन्म, जरा, मोत फिर जन्म बुढ़ापा, मौत पाकर कईं भव का परावर्तन करना पड़ता है । और फिर उसमें ८४ लाख योनि में बार-बार पेदा होना पड़ता है ।
और फिर बार-बार अति दुःसह घोर गहरे काले अंधकाखाले, लहूँ से लथपथ चरबी, परु, उल्टी, पित्त, कफ के कीचड़वाले, बदबूँवाले, अशुचि बहनेवाले गर्भ की चारो ओर लीपटनेवाले ओर, फेफड़े, विष्ठा, पेशाब आदि से भरे अनिष्ट, उद्वेग करवानेवाले, अति घोर, चंड़, रौद्र दुःख से भयानक ऐसे गर्भ की परम्परा में प्रवेश करना वाकई में दुःख है, क्लेश है, वो रोग और आतंक है, वो शोक, संताप और उद्धेग करवानेवाले है, वो अशान्ति करवानेवाले है, अशान्ति करवानेवाले होने से यथास्थिति इष्ट मनोरथ की अप्राप्ति करवानेवाले है, यथास्थिति इष्ट मनोरथ की प्राप्ति न होने से उसको पाँच तरह के अंतराय कर्म का उदय होता है ।
जहाँ पाँच तरह के कर्म का उदय होता है, उसमें सर्व दुःख के अग्रभूत ऐसा प्रथम दारिद्रय पेदा होता है, जिसे दारिद्र होता है वहाँ अपयश, झूठे आरोप लगाना, अपकीर्ति कलंक आदि कई दुःख के ढ़ग इकट्ठे होते है । उस तरह के दुःख का योग हो तब सकल लोगो से