________________
महानिशीथ - ५ /-/ ८४२
५१
गुरु के उपदेश अनुसार यथार्थ सूत्रार्थ को बताऊँ ऐसा सोचकर हे गौतम ! समग्र अवयव विशुद्ध ऐसी उस गाथा का यथार्थ व्याख्यान किया । इस अवसर पर हे गौतम ! दुरन्त प्रान्त अधम लक्षणवाले उस वेशधारी ने सावद्याचार्य को सवाल किया कि यदि ऐसा है तो तुम भी मूल गुण रहित हो । क्योंकि तुम वो दिन याद करे तो वो आर्य उन्हें वंदन करने की इच्छावाली थी तब वंदन करते करते मस्तक से पाँव का स्पर्श किया ।
उस समय इस लोक के अपयश से भयभीत अति अभिमान पानेवाले उस सावद्याचार्य का नाम रख दिया वैसे अभी कुछ भी वैसा नाम रखेंगे तो सर्व लोक में मैं अपूज्य बनूँगा । तो अब यहाँ मैं क्या समाधान दूँ ? ऐसा सोचते हुए सावधाचार्य को तीर्थंकर का वचन याद आया कि जो किसी आचार्य या गच्छनायक या गच्छाधिपति श्रुत धारण करनेवाला हो उसने जो कुछ भी सर्वज्ञ अनन्तज्ञानी भगवंत ने पाप और अपवाद स्थानक को प्रतिषेधे हो वो सर्व श्रुत अनुसार जानकर सर्व तरह से आचरण करे, आचरण करनेवाले को अच्छा न माने, उसकी अनुमोदना न करे, क्रोध से, मान से, माया से, लोभ से, भय से, हँसी से, गारव से, दर्प से, प्रमाद से बार-बार चूक जाने या स्खलना होने से दिन में या रात को अकेला हो या पर्षदा में हो, सोते हुए या जागते हुए । त्रिविध त्रिविध से मन, वचन या काया से यह सूत्र या अर्थ के एक भी पद के यदि कोई विराधक हो । वो भिक्षु बार-बार निंदनीय, गर्हणीय, खींसा करने के लायक, दुगंछा करने के लायक, सर्वलोक से पराभव - पानेवाला, कई व्याधि वेदना से व्याप्त शरीरवाला, उत्कृष्ट दशावाले अनन्त संसार सागर में परिभ्रमण करनेवाले होते है, उसमें परिभ्रमण करने से एक पल भी कईं शायद भी शान्ति नहीं पा शकता । तो प्रमादाधीन हुआ पापी अधमाधम हीन सत्त्ववाले कायर पुरुष समान मुझे यहीं यह बड़ी आपत्ति पेदा हुई है कि जिससे मैं यहाँ युक्तीवाला किसी समाधान देने के लिए समर्थ नहीं हो शकता । और परलोक में भी अनन्त भव परम्परा में भ्रमणा करते हुए अनन्ती बार के घोर भयानक दुःख भुगतनेवाला बनूँगा । वाकईं मैं मंद भाग्यवाला हूँ । इस प्रकार सोचनेवाले ऐसे सावद्याचार्य को दुराचारी पापकर्म करनेवाले दुष्ट श्रोता ने अच्छी तरह से पहचान लिया कि, यह झूठा काफी अभिमान करनेवाला है । उसके बाद क्षोभ पाए हुए मनवाले उसे जानकर उस दुष्ट श्रोताओ ने कहा कि जब तक इस संशय का छेदन नहीं होगा तब तक व्याख्यान मत उठाना, इसलिए इसका समाधान दुराग्रह को दूर करने के लिए समर्थ प्रौढ़युक्ति सहित दो ।
तब उसने सोचा कि अब उसका समाधान पाए बिना वो यहाँ से नहीं जाएगे । तो अब मैं उसका समाधान किस तरह दूँ ? ऐसा सोचते हुए फिर से है गौतम ! उस दुराचारी ने उसे कहा कि तुम ऐसे चिन्ता सागर में क्यों डूब गए हो ? जल्द ही इस विषय का कुछ समाधान दो । और फिर ऐसा समाधान दो कि जिससे बताई हुई आस्तिकता में तुम्हारी युक्ति एतराज बिना - अव्यक्तचारी हो । उसके बाद लम्बे अरसे तक हृदय में परिताप महसूस करके सावद्याचार्य ने मन से चिन्तवन किया और कहा कि इस कारण से जगद्गुरु ने कहा है कि[८४३] कच्चे घड़े में डाला हुआ जल जिस तरह जल और उस घड़े का विनाश करते है । वैसे अपात्र में दिये सूत्र और अर्थ उसका और सूत्रार्थ को नष्ट करते है । इस तरह का सिद्धांत रहस्य है कि अल्पतुच्छ आधार नष्ट होता है ।
[८४४] तब भी उस दुराचारी ने कहा कि तुम ऐसे आड़े- टेढे रिश्ते के बिना दुर्भाषित